सूर्य की गति पर आधारित यह उत्सव भारत के लाखों वर्षों से खगोल विज्ञान का ज्ञाता होने का प्रमाण है।
मकर संक्रांति में मकर शब्द आकाश में स्थित तारामंडल का नाम है जिसके सामने सूर्य के आने के दिन ही पूरे दिवस मकर संक्रांति मनाया जाता है। पंजाब, हरियाणा, दिल्ली में लोहड़ी के नाम से यह उत्सव मनाया जाता है सूर्य के मकर राशी में प्रवेश से एक दिन पूर्व। यह उत्सव सूर्य का उत्तरायण में स्वागत का उत्सव है। उत्तरायण का अर्थ है पृथ्वी के उत्तरी ध्रुव के सापेक्ष में स्थित आकाश का भाग अर्थात उत्तरी अयन। जब सूर्य उत्तरायण में आता है तो इसकी किरणें पृथ्वी पर क्रमशः सीधी होने लगती है। जिससे धीरे धीरे गर्मी बढ़ने लगती है। यह सर्दी के ऋतु का अंतकाल माना जाता है। इसीलिए इस उत्सव में सर्दी की बिदाई का भाव भी है। यह समय फसलों से घर भर जाने का है। फसलों से आई समृद्धि को मनाने का उत्सव है यह। ऋतु परिवर्तन के समय मनुष्य की रोग प्रतिरोधक क्षमता घटती है। इसीलिए उसके बीमार होने की संभावना बढ़ जाती है। ऐसे में उस प्रकार के पदार्थों का सेवन किया जाता है जिससे रोग प्रतिरोधक क्षमता की वृद्धि हो।
भारत के बाहर झांके तो आपको दुनियाँ के किसी भी प्राचीन सभ्यता में ग्रहों, नक्षत्रों, राशियों, उपग्रहों का विस्तृत ज्ञान नहीं मिलेगा। हमारे सनातन धर्मियों को लाखों वर्षों से सूर्य संक्रांति का ज्ञान था। साथ ही सूर्य ग्रहण का ज्ञान भी था। हम सैकड़ों वर्ष पहले ही अपनी गणितीय क्षमता से जान लेते थे कि सूर्य ग्रहण कब, किस दिन, कितने घटी, कितने पल और कितने विपल पर होगा? कितने क्षण में ग्रहण का स्पर्श होगा और कितने निमेष पर ग्रहण का मोक्ष होगा? हमें चंद्र ग्रहण का ज्ञान भी था। चंद्र ग्रहण का विस्तृत ज्ञान हम बहुत समय पूर्व ही कर लिया करते थे। सूर्य की बारह महीनों में बारह संक्रांति होती है। उनको मेष संक्रांति, वृष संक्रांति, मकर संक्रांति, मीन संक्रांति इत्यादि नामों से जाना जाता है। सभी बारह राशियों में सूर्य कितने घटी कितने पल पर प्रवेश करेगा यह हमें ज्ञात था लाखों वर्षों से। सूर्य एक राशी के सामने एक महीना रहता है फिर दूसरे महीने दूसरी राशि के सामने चला जाता है। इस प्रकार पूरे एक वर्ष में बारह महीनों में बारह राशियों का भ्रमण करते हुए सूर्य अपना एक वर्ष पूर्ण कर लेता है।
यूरोप वालों को बड़े लंबे प्रयोग के बाद, बड़ी लंबी साधना के बाद सूर्य की गति का बहुत थोड़ा ज्ञान हुआ तो उनलोगों ने अपने आठ महीने के ग्रेगोरियन कैलेंडर को ठीक करके पहले दस महीने का किया। बाद में दो महीने और जोड़कर बारह महीनों का किया। इतने लंबे समय तक कि पूरी यूरोपियन यात्रा में उनको इतना ही पता चल पाया कि सूर्य की पूरी परिक्रमा 365 दिनों की है। बहुत बाद में उनको पता चला कि 365 दिनों के अतिरिक्त भी 6 घंटे का और समय होता है एक सौर वर्ष में। तब उनको लिप ईयर की परिकल्पना हुआ। किन्तु हिंदुओं को तो लाखों वर्षों से यह ज्ञान था कि सूर्य 365 दिन साढ़े 15 घटी में अपना एक वर्ष पूर्ण करता है। इसमें एक घटी को आप घंटा मिनट में बदलेंगे तो एक घटी का अर्थ होगा 24 मिनट।
अरब वालों को चांद के आगे का ज्ञान ही नहीं था। सूर्य का थोड़ा ज्ञान हुआ भी तो बड़ा भ्रमपूर्ण ज्ञान था। उन्होंने चंद्रमा की गति के आधार पर अपना कैलेंडर बनाया। यह इंदु अर्थात चंद्रमा की गति पर आश्रित था। इसी इंदु से इदु और इदु से शब्द इद्दत बना। किन्तु वो गिनती में गड़बड़ कर गए। और चंद्रमा की गति के आधार पर ईद देखकर अर्थात इंदु देखकर अर्थात चांद देखकर महीना गिनने लगे। बारह महीनों की बात भारत के व्यापारियों से उनको पता चली थी तो उन्होंने चांद के बारह महीने गिन लिए। अर्थात 28×12=336 दिनों का वर्ष बना लिया। परिणाम उनके वर्ष का तालमेल सूर्य से आज भी नहीं बैठ पाया। और हर सौर वर्ष में उनका त्योहार एक माह पीछे चला जाता है। क्योंकि उनका वर्ष है 336 दिनों का और सूर्य का वर्ष होता है 365 दिन 6 घंटों का। तो इस अनुसार उनका चांद्र वर्ष और पश्चिम के सौर वर्ष में 29 दिनों का अंतर आ जाता है।
किन्तु भारत के ऋषियों ने दोनो ही प्रकार के काल गणना को बड़े गहराई से समझा। तभी समझ लिया जब ईसाईयत और इस्लाम का जन्म भी नहीं हुआ था। उनके लाखों वर्ष पूर्व ही समझ लिया। और जब सनातनी ऋषियों ने अपना कैलेंडर अर्थात अपना पञ्चाङ्ग बनाया तो उनलोगों न तो सौर पञ्चाङ्ग बनाया और न ही चांद्र पञ्चाङ्ग बनाया। हमारे ऋषियों ने जो पञ्चाङ्ग बनाया वह सौर पञ्चाङ्ग और चांद्र पञ्चाङ्ग का सम्मिलित स्वरूप है। दोनो का समन्वित स्वरूप है। दोनो का तालमेल ऐसा बिठाया है भारत के ऋषियों ने कि हिन्दू पञ्चाङ्ग के एक एक महीने का संबंध ऋतुओं से पूर्व निर्धारित सा प्रतीत होता है। केवल पृथिवी पर घट रही घटनाओं का ही समन्वय नहीं है तो ब्रह्मांड में घट रही घटनाओं का भी
समन्वय है इसमें। सूर्य मकर राशी में प्रवेश कर रहा है आकाश में किन्तु उसकी भी गणना है भारतीय पञ्चाङ्ग में। सूर्य ग्रहण, चंद्र ग्रहण हो रहा है आकाश में किन्तु उन सब की गणना है भारतीय पञ्चाङ्ग में। चांद्र पञ्चाङ्ग और सौर पञ्चाङ्ग का साम्य बिठाने के लिए पञ्चाङ्ग में प्रत्येक दो वर्षों के उपरांत पुरुषोत्तम माह का प्रावधान भी किया गया जिसे मलमास भी कहा जाता है। इस माह को बहुत पवित्र कहा जाता है।
भारत में छः ऋतुओं की पूरी परिकल्पना आपको पञ्चाङ्ग में मिल जाएगा। तीन मौसम का ज्ञान तो पूरी दुनियाँ को हो गया है किंतु प्रकृति में घट रही एक एक घटना चाहे वो पृथिवी पर घटित हो या ब्रह्मांड में उन सब का विवरण मिलेगा आपको भारतीय पञ्चाङ्ग में। सूर्य के उत्सव अनेक हैं भारत में। चंद्रमा के उत्सव भी अनेक हैं भारत में। पूर्णिमा और अमावस्या का हिन्दू ज्ञान तो सर्वविदित है जो भारत के बाहर कहीं चर्चा भी नहीं होता। इसी आधार पर माह में दो पक्षों की बात भारतीय मनीषा ने कहा। और चंद्रमा की एक एक तिथि का व्रत आपको मिलेगा। एक एक दिन का राशिफल आपको मिलेगा। क्योंकि चंद्रमा एक नक्षत्र में एक ही दिन रहता है। और एक राशि में लगभग ढाई दिन। चंद्रमा की गति के आधार पर ही करवा चौथ होता है। चंद्रमा की गति के आधार पर ही तीज व्रत अर्थात हरितालिका व्रत होता है। चन्द्रायण व्रत तो बहुत कठिन साधना का अंग माना जाता है भारतीय पर्व परम्परा में।
भारत के बहुत बड़े हिस्से में इसे मकर संक्रांति कहा जाता है। इस दिन लोग पवित्र नदियों, सरोवरों में स्नान करते हैं। दान करते हैं। अन्न दान भी और द्रव्य दान भी। तिल और गुड़ से बने विभिन्न मिष्ठान्न का सेवन करते हैं। इसे पंजाब, हरियाणा और दिल्ली में लोहड़ी के नाम से मनाया जाता है। इन क्षेत्रों में यह उत्सव एक सप्ताह का मनाया जाता है। मायके से पति के घर उपहार लेकर आती हैं बहुएँ इस दिन। इसी को कहते हैं लोहड़ी का आना। आसाम में इसे बिहू कहा जाता है। आसाम के कुछ क्षेत्रों में इसे माघ बिहू भी कहा जाता है। कुछ क्षेत्रों में इसे भोगाली बिहू भी कहा जाता है। दक्षिण में इसे पोंगल के नाम से मनाया जाता है। तमिलनाडु में यह उत्सव चार दिनों का होता है। प्रथम दिवस इसे भोगी पांडीगई कहते हैं। दूसरे दिन थाई पोंगल कहा जाता है। तिसरे दिन माट्टू पोंगल के नाम से जाना जाता है तो चौथे दिन कानम पोंगल के नाम से मनाया जाता है। यह आंध्र में तीन दिन का उत्सव होता है।
कर्नाटक के किसानों का यह सुग्गी उत्सव है। कर्नाटक में इसे किछु हाईसुवुडडू के रूप में भी मनाया जाता है। हिमाचल प्रदेश में शिमला के आसपास इसे माघ साजा कहा जाता है। कुमाऊं क्षेत्र में इस उत्सव को घुघुटिया के रूप में मनाया जाता है और कौआ बुलाने की प्राचीन पद्धति के अवशिष्ट रूप में काले कौआ के आवाहन के गीत गाये जाते हैं। उड़ीसा में इसे मकर बासीबा कहकर मनाया जाता है। बंगाल में इसे मागे सक्राति के रुप में मनाते हैं। इस दिन तिल का सेवन स्वास्थ्य वर्द्धक होता है इसीलिए इसे तिल संक्रात भी कहते हैं। केरल में सबरीमाला पर मकर ज्योति जलाकर मकराविलाक्कू मनाया जाता है। गोआ में हल्दी कुमकुम मनाया जाता है। मकर संक्रांति के दूसरे दिन को मंक्रात के रूप में भी मनाया जाता है।
कहीं तिल खाया जाता है तो कहीं खिंचड़ी खाने की प्रथा है। खिचड़ी के चार यार। दहि पापड़ घी अँचार। कई क्षेत्रों में तेहरी भी बनाया जाता है। कहीं गज्जक और रेवड़ी चखा जाता है तो कहीं पतंगबाजी का हुनर तरासा जाता है। कहीं गुड़ से बने अनेकानेक मिष्ठान्न खाये जाते हैं तो कहीं दहिं चूड़ा खाने की प्रथा है। तिल के लड्डू, तीसी के लड्डू, अलसी के लड्डू, धान का लावा तो कहीं जीनोर का लावा, मक्के का लावा, मूंगफली की पट्टी, बादाम की पट्टी, काजू की पट्टी, अखरोट की पट्टी खाया जाता है। अनेक क्षेत्रों में तिलकुट कूटा जाता है। खाने के अनेक व्यंजन विशेष रुप में इसी समय खाया जाता है। जितने भी प्रकार के व्यंजन इस समय बनाये जाते हैं उन सभी सामग्रियों का संबंध इस ऋतु विशेष में स्वास्थ्य रक्षा से है। कैसे इस समय में उत्तम स्वास्थ्य प्राप्त किया जा सके? इस आयुर्वेदिक चिंतन पर आधारित हैं ये सभी व्यंजन। इतना समग्र चिंतन केवल और केवल भारत में मिलता है। जिसमें फसल चक्र से लेकर अर्थ चक्र और स्वास्थ्य चक्र से लेकर आयुषचक्र तक का चिंतन भी समाहित है। इस सम्पूर्ण वांग्मय के समक्ष पूरा विश्व बौना है। और भारतीय मनीषा हिमालय से ऊँची ऊँचाई को स्पर्श करता हुआ प्रतीत होता है !
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This festival based on the motion of the Sun is the proof of India's knowledge of astronomy for millions of years.
In Makar Sankranti, the word Makar is the name of the constellation located in the sky, in front of which Makar Sankranti is celebrated for the whole day only on the day of the arrival of the Sun. In Punjab, Haryana, Delhi, this festival is celebrated in the name of Lohri, a day before the Sun enters Makar Rashi. This festival is a celebration of the welcome of the sun in Uttarayan. Uttarayan means the part of the sky located relative to the North Pole of the Earth, that is, the North Ion. When the Sun comes in Uttarayan, its rays gradually start straightening on the earth. Due to which gradually the heat starts increasing. It is considered to be the end of the winter season. That is why there is also a sense of farewell to winter in this festival. It is time to fill the house with crops. It is a festival to celebrate the prosperity brought by crops. During the change of seasons, the immunity of man decreases. That's why his chances of getting sick increase. In such a situation, those types of substances are consumed, which increase the immunity of the disease.
If you look outside India, you will not get detailed knowledge of planets, constellations, zodiacs, satellites in any ancient civilization of the world. Our Sanatan Dharmis had the knowledge of Surya Sankranti for millions of years. Also had the knowledge of solar eclipse. Hundreds of years ago, we used to know by our mathematical ability that when, on what day, how much, how many moments and how many times the solar eclipse will happen? In how many moments will there be a touch of the eclipse and at how many times the eclipse will be attained? We also had the knowledge of lunar eclipse. We used to get detailed knowledge of lunar eclipse long time back. There are twelve Sankranti in twelve months of the Sun. They are known by names like Aries Sankranti, Vrisha Sankranti, Makar Sankranti, Meen Sankranti etc. It was known to us for millions of years at how many moments the Sun would enter all the twelve zodiac signs. The Sun stays in front of one zodiac for one month and then moves in front of another zodiac in the second month. In this way, the Sun completes one year by traveling through twelve zodiac signs in twelve months in a whole year.
The Europeans, after a very long experiment, after a long sadhana, had little knowledge of the motion of the Sun, so they corrected their Gregorian calendar of eight months and made the first ten months. Later on adding two more months to twelve months. For such a long time that in the entire European journey, he only got to know that the complete orbit of the Sun is 365 days. Much later he came to know that in addition to 365 days, there are 6 hours more time in a solar year. Then he got the concept of lip year. But Hindus knew for millions of years that the Sun completes its one year in 365 days, 15 and a half hours. In this, if you convert one Ghati to Hour and Minute, then one Ghati will mean 24 minutes.
The Arabs had no knowledge about the moon. Even if I had a little knowledge of the sun, it was a very illusory knowledge. He made his calendar based on the movement of the moon. It was dependent on the movement of Indu i.e. the Moon. From this Indu the word Idu was formed and from Idu the word iddat was formed. But he messed up the count. And on the basis of the movement of the moon, seeing Id i.e. seeing Indu i.e. seeing the moon started counting the months. When he came to know about the twelve months from the merchants of India, he counted the twelve months of the moon. That is, made a year of 28×12=336 days. As a result, the synergy of his year could not sit still with the Sun. And in every solar year their festival goes back a month. Because his year is of 336 days and the year of the Sun is 365 days and 6 hours. So according to this there is a difference of 29 days between their lunar year and the western solar year.
But the sages of India understood both types of time calculations very deeply. It was understood only when Christianity and Islam were not even born. It was understood millions of years before him. And when the Sanatani sages made their calendar, that is, their own calendar, they neither made the solar calendar nor the lunar calendar. The calendar created by our sages is a composite form of the solar calendar and the lunar calendar. Both have a coordinated nature. The sages of India have arranged the harmony of both in such a way that the relation of each month of the Hindu calendar appears to be predetermined with the seasons. It is not only the coordination of the events happening on earth, but also the events happening in the universe.
There is coordination in it. The Sun is entering the Capricorn sign in the sky, but it is also calculated in the Indian calendar. Solar eclipse, lunar eclipse is happening in the sky but all of them are calculated in the Indian calendar. In order to balance the lunar calendar and solar calendar, a provision of Purushottama month, also known as Malmas, was made after every two years in the Panchang. This month is said to be very holy.
You will find the complete concept of the six seasons in India in the Panchang. The whole world has got the knowledge of three seasons, but every single event happening in nature, whether it is happening on earth or in the universe, you will get the details of them all in the Indian Panchang. There are many festivals of the sun in India. There are also many moon festivals in India. The Hindu knowledge of Purnima and Amavasya is well known, which is not even discussed anywhere outside India. On this basis, Indian Manisha said the matter of two sides in the month. And you will get the fast of each date of the moon. You will get the horoscope of one day. Because the moon stays in one constellation for only one day. And about two and a half days in one zodiac. Karva Chauth is based on the movement of the Moon. Teej Vrat i.e. Haritalika Vrat is observed on the basis of the movement of Moon. Chandrayan fasting is considered to be a part of very difficult sadhna in the Indian festival tradition.
In a large part of India, it is called Makar Sankranti. On this day people take bath in holy rivers and lakes. make donations. Donation of food and also donating money. They consume various sweets made from sesame and jaggery. It is celebrated as Lohri in Punjab, Haryana and Delhi. In these regions this festival is celebrated for a week. On this day daughters-in-law bring gifts from maternal home to husband's house. This is called the coming of Lohri. In Assam it is called Bihu. It is also known as Magh Bihu in some areas of Assam. In some regions it is also known as Bhogali Bihu. In the south it is celebrated as Pongal. In Tamil Nadu, this festival lasts for four days. On the first day it is called Bhogi Pandigai. The second day is called Thai Pongal. The third day is known as Mattu Pongal and the fourth day is known as Kanam Pongal. It is a three-day festival in Andhra.
This is the Suggi festival of the farmers of Karnataka. In Karnataka it is also celebrated as Kichhu Haisuwooddu. It is called Magh Saja around Shimla in Himachal Pradesh. In the Kumaon region, this festival is celebrated as Ghughutiya and songs are sung to invoke the black crow as a residual form of the ancient method of calling the crow. In Orissa it is celebrated as Makar Basiba. In Bengal, it is celebrated as Mage Sakrati. Consumption of sesame on this day is beneficial for health, hence it is also known as Til Sankrant. Makaravilakku is celebrated in Kerala by lighting the Makara Jyothi at Sabarimala. Haldi Kumkum is celebrated in Goa. The second day of Makar Sankranti is also celebrated as Mankrant.
Somewhere sesame is eaten and somewhere it is customary to eat khichdi. Four friends of khichdi. Dahi papad ghee pickle. Tehri is also made in many areas. Somewhere Gajjak and Rewari are tasted and somewhere the skill of kite flying is sharpened. Somewhere many sweets made from jaggery are eaten and somewhere it is customary to eat right chuda. Sesame laddus, tasi laddus, linseed laddus, paddy slag, and some places like jeanor lava, maize slag, peanut strips, almond strips, cashew strips, walnut strips are eaten. Tilkut is cooked in many areas. Many food dishes are specially eaten at this time. All the types of dishes that are prepared at this time, all those ingredients are related to health protection in this particular season. How to get good health in this time? All these recipes are based on this Ayurvedic thought. Such holistic thinking is found only and only in India. In which the contemplation from the crop cycle to the earth cycle and from the health cycle to the Ayush cycle is also included. The whole world is a dwarf in front of this complete vanity. And the Indian sage seems to be touching a high altitude from the Himalayas.
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