23 जून 2022

योगिनी एकादशी ।। Yogini Ekadashi ।। 24.06.2022


लेख:- योगिनी एकादशी,24.06.2022


एकादशी प्रारम्भ:- 23.06.2022, 9:42 pm
एकादशी समाप्त:-24.06.2022, 11:13 pm
पारण का समय -25.06.2022, 05:43 am से 8:12 am तक ।
पारण अवधि:- 2 घंटे 48 मिनट ।
हरि वासर समाप्ति- 25 जून 05:43 am पर

हिन्दू धर्म शास्त्रों मे वर्णित कथा के अनुसार भगवान  विष्णु जी ने मनुष्य जाति के कल्याणार्थ अपने शरीर से पुरुषोत्तम मास की एकादशियों सहित कुल 26 एकादशियों को उत्पन्न किया। 

हिन्दू धर्म शास्त्रों के अनुसार प्रत्येक मास आने वाली कृष्ण और शुक्ल पक्ष की एकादशी तिथि का महत्व बहुत अधिक है। पौराणिक ग्रंथों में हर एकादशी का अपना अलग महत्व बताया गया है। इन्हीं विशेषताओं के कारण इनके नाम भी भिन्न भिन्न रखे गये हैं। कुल मिलाकर साल भर में चौबीस एकादशियां होती हैं मल मास की एकादशियों को मिलाकर इनकी संख्या 26 हो जाती है। 

भगवान श्री कृष्ण जी ने स्वयं गीता के द्वारा एकादशी   तिथि को अपने ही समान बलशाली बताया है।

योगिनी एकादशी का व्रत आषाढ़ माह में कृष्ण पक्ष की एकादशी को मनाया जाता है। वर्ष 2022 मे योगिनी एकादशी का व्रत 24 जून को धारण करके 25 जून को व्रत का पारण किया जायेगा।

योगिनी एकादशी व्रत का महत्व:-
1. योगिनी एकादशी का तीनों लोकों में अपने पुण्यदायी प्रभाव के लिए प्रसिद्ध है। जिसका उल्लेख पद्म पुराण में भी किया गया है।
योगिनी एकादशी का व्रत इसका पालन करने वालों को अपने जीवन में समृद्धि, अच्छा स्वास्थ्य, सफलता और मान्यता प्राप्त करने में मदद करता है।ऐसी मान्यता है कि इस व्रत को विधिपूर्वक तथा श्रद्धा पूर्वक करने से 88 हज़ार ब्राह्मणों को भोजन कराने के समान पुण्य मिलता है।

2. इस एकादशी का व्रत करने से पीपल के वृक्ष को काटने से उत्पन्न हुए पाप नष्ट हो जाते हैं, और अंत में मनुष्य स्वर्गलोक को प्राप्त करता है।

3. शास्त्रानुसार योगिनी एकादशी करने से व्रत समस्त पाप तो नष्ट होते ही हैं, साथ ही इस लोक में भोग और परलोक मुक्ति भी प्राप्त होती है। 

4. इस व्रत के प्रभाव से किसी के दिये हुए श्राप का निवारण भी हो जाता है, तथा भक्त भगवान विष्णु के दिव्य आशीर्वाद के परिणाम स्वरूप दीर्घायु को प्राप्त करनें के उपरांत मोक्ष को प्राप्त करते हैं।

5. योगिनी एकादशी व्रत के पुण्य प्रभाव से देह की समस्त आधि-व्याधियों (समस्त रोग) नष्ट हो जाती है, तथा सुंदर रुप, गुण और यश भी प्राप्त होता है।

6. योगिनी एकादशी का व्रत धारण करने से भक्त को जीवन में समृद्धि और आनन्द की प्राप्ति होती है। 

7. योगिनी एकादशी के विषय में शास्त्रों मे उल्लेख है कि जो व्रती श्रद्धा पूर्वक योगिनी एकादशी व्रत का पालन करता है, वह अपने अतीत और वर्तमान पापों से मुक्त हो जाता है।


योगिनी एकादशी व्रत पूजा विधि:-
1. योगिनी एकादशी के उपवास की शुरुआत दशमी तिथि की रात्रि से ही हो जाती है। व्रती को दशमी तिथि अर्थात व्रत धारण करने की पूर्व रात्रि से ही तामसिक भोजन का त्याग कर नमक रहित सादा भोजन ग्रहण करना चाहिये । व्रती को जौं, गेहूं और मूंग की दाल से बना भोजन भी ग्रहण नहीं करना चाहिए।

2. भक्तों को उसी दिन से ही ब्रह्मचर्य का पालन करना आवश्यक है, संभव हो तो जमीन पर ही शयन करना चाहिए।

3. एकादशी के दिन प्रात:काल उठकर नित्यकर्म से निर्वत होकर स्नानादि के पश्चात व्रत का संकल्प लें।

4. योगिनी एकादशी के दिन भगवान श्री नारायण की पूजा-आराधना की जाती है।

5. लकडी की चौकी पर भगवान विष्णु की मूर्ति अथवा सुन्दर चित्र स्थापित करे ।

6. उसी वेदी पर नारियल सहित कुंभ स्थापना करनी चाहिए।

7. तत्पश्चात भगवान विष्णु जी की मूर्ति का पुष्प, धूप, दीप इत्यादि से पंचोपचार अथवा अपनी सामर्थ्यनुसार षोडशोपचार पूजन करे।

8. तत्पश्चात भगवान को भोग लगाकर योगिनी एकादशी की कथा का पठन अथवा श्रवण करना अत्यंत आवश्यक है।

9. पूजा के उपरांत भावपूर्वक भगवान जी की आरती उतारनी चाहिए।

10. योगिनी एकादशी का पूजन, भक्त अथवा व्रती स्वंय भी कर सकते हैं, अथवा किसी विद्वान ब्राह्मण से भी करवा सकते हैं। 

11. एकादशी पूजा के बाद पीपल के वृक्ष की पूजा भी इस दिन अवश्य करनी चाहिये।

12. तत्पश्चात अपनी सामर्थ्यनुसार दान कर्म करना भी बहुत कल्याणकारी रहता है।

13. व्रती को एकादशी की रात्रि में भगवान विष्णु जी (नारायण) का ध्यान करते हुए रात्रि जागरण भी अवश्य करना चाहिये। 

योगिनी एकादशी व्रत का पारण:-
योगिनी एकादशी व्रत के बाद द्वादशी के दिन ब्राह्मणों को भोजन करा कर दक्षिणा देंकर ही व्रती को स्वयं भोजन ग्रहण करने का विधान है। इस प्रकार नियम पूर्वक पारण करने से भक्तों को अक्षुण्ण पुण्य मिलता है। 


योगिनी एकादशी व्रतकथा:-
महाभारत काल की बात है कि एक बार धर्मराज युधिष्ठिर भगवान श्री कृष्ण से एकादशियों के व्रत का माहात्म्य सुन रहे थे। 

उन्होंनें भगवान श्री कृष्ण से कहा कि भगवन आषाढ़ माह के कृष्ण पक्ष की एकादशी का क्या महत्व है और इस एकादशी का नाम क्या है? 

भगवान श्री कृष्ण ने कहा हे राजन इस एकादशी का नाम योगिनी है। समस्त जगत में जो भी इस एकादशी के दिन विधिवत उपवास रखता है प्रभु की पूजा करता है उसके सारे पाप नष्ट हो जाते हैं। वह अपने जीवन में तमाम सुख-सुविधाओं, भोग-विलास का आनंद लेता है और अंत काल में उसे मोक्ष की प्राप्ति होती है। योगिनी एकादशी का यह उपवास तीनों लोकों में प्रसिद्ध है। 

तब युद्धिष्ठर ने कहा प्रभु योगिनी एकादशी के महत्व को आपके मुखारबिंद से सुनकर मेरी उत्सुकता और भी बढ़ गई है कृपया इसके बारे थोड़ा विस्तार से बतायें। अब भगवान श्री कृष्ण कहने लगे हे धर्मश्रेष्ठ मैं पुराणों में वर्णित एक कथा सुनाता हूं उसे ध्यानपूर्वक सुनना।
 
स्वर्गलोक की अलकापुरी नामक नगर में कुबेर नाम के राजा राज किया करते थे। वह बड़े ही नेमी-धर्मी राजा था और भगवान शिव के उपासक थे। आंधी आये तूफान आये कोई भी बाधा उन्हें भगवान शिव की पूजा करने से नहीं रोक सकती थी। भगवान शिव के पूजन के लिये उनके लिये हेम नामक एक माली फूलों की व्यवस्था करता था। वह हर रोज पूजा से पहले राजा कुबेर को फूल देकर जाया करता। हेम अपनी पत्नी विशालाक्षी से बहुत प्रेम करता था, वह बहुत सुंदर स्त्री थी। एक दिन क्या हुआ कि हेम पूजा के लिये पुष्प तो ले आया लेकिन रास्ते में उसने सोचा अभी पूजा में तो समय है क्यों न घर चला जाये उसने  आते-आते अपने घर की राह पकड़ ली। घर आने बाद अपनी पत्नी को देखकर वह कामास्क्त हो गया और उसके साथ रमण करने लगा। 

उधर पूजा का समय बीता जा रहा था और राजा कुबेर पुष्प न आने से व्याकुल हुए जा रहे थे। जब पूजा का समय बीत गया और हेम पुष्प लेकर नहीं पंहुचा तो राजा ने अपने सैनिकों को भेजकर उसका पता लगाने की कही। सैनिकों ने लौटकर बता दिया कि महाराज वह महापापी है महाकामी है अपनी पत्नी के साथ रमण करने में व्यस्त था। यह सुनकर तो कुबेर का गुस्सा सांतवें आसमान पर पंहुच गया।

 उन्होंनें तुरंत हेम को पकड़ लाने की कही। अब हेम कांपते हुए राजा कुबेर के सामने खड़ा था। कुबेर ने हेम को क्रोधित होते हुए कहा कि हे नीच महापापी तुमने कामवश होकर भगवान शिव का अनादर किया है मैं तूझे शाप देता हूं कि तू स्त्री का वियोग सहेगा और मृत्युलोक में जाकर कोढ़ी होगा। अब कुबेर के शाप से हेम माली भूतल पर पंहुच गया और कोढ़ग्रस्त हो गया। 

स्वर्गलोक में वास करते-करते उसे दुखों की अनुभूति नहीं थी। लेकिन यहां पृथ्वी पर भूख-प्यास के साथ-साथ एक गंभीर बिमारी कोढ़ से उसका सामना हो रहा था उसे उसके दुखों का कोई अंत नजर नहीं आ रहा था लेकिन उसने भगवान शिव की पूजा भी कर रखी थी उसके सत्कर्म ही कहिये कि वह एक दिन घूमते-घूमते मार्कण्डेय ऋषि के आश्रम में पंहुच गया। इनके आश्रम की शोभा देखते ही बनती थी। ब्रह्मा की सभा के समान ही मार्कंडेय ऋषि की सभा का नजारा भी था। वह उनके चरणों में गिर पड़ा और महर्षि के पूछने पर अपनी व्यथा से उन्हें अवगत करवाया। 

अब ऋषि मार्केंडय ने कहा कि तुमने मुझसे सत्य बोला है इसलिये मैं तुम्हें एक उपाय बताता हूं। आषाढ़ मास के कृष्ण पक्ष को योगिनी एकादशी होती है। इसका विधिपूर्वक व्रत यदि तुम करोगे तो तुम्हारे सब पाप नष्ट हो जाएंगें। अब माली ने ऋषि को साष्टांग प्रणाम किया और उनके बताये अनुसार योगिनी एकादशी का व्रत किया। इस प्रकार उसे अपने शाप से छुटकारा मिला और वह फिर से अपने वास्तविक रुप में आकर अपनी स्त्री के साथ सुख से रहने लगा।

भगवान श्री कृष्ण कथा सुनाकर युधिष्ठर से कहने लगे हे राजन 88 हजार ब्राह्मणों को भोजन कराने के पश्चात जितना पुण्य मिलता है उसके समान पुण्य की प्राप्ति योगिनी एकादशी का विधिपूर्वक उपवास रखने से होती है और व्रती इस लोक में सुख भोग कर उस लोक में मोक्ष को प्राप्त करता है।
 
(समाप्त)
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आगामी लेख:-
1. 15 जून से 27 जून तक "जन्मपत्रिका में विभिन्न भावो के अधिपतियो का बारह भागों में स्थित होने का फल" विषय पर धारावाहिक ज्योतिषीय लेख।
2. 28 जून को "आषाढी अमावस्या" पर लेख।
3. 29 जून से "गुप्त नवरात्रो" पर धारावाहिक लेख
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जय श्री राम
आज का पंचांग,दिल्ली 🌹🌹🌹
वृहस्पतिवार,23.6.2022
श्री संवत 2079
शक संवत् 1944
सूर्य अयन- उत्तरायण, गोल-उत्तर गोल
ऋतुः- ग्रीष्म ऋतुः ।
मास- आषाढ़ मास।
पक्ष- कृष्ण पक्ष ।
तिथि- दशमी तिथि 9:43 pm तक
चंद्रराशि- चंद्र मीन राशि में 6:14 am तक तदोपरान्त मेष राशि।
नक्षत्र- रेवती नक्षत्र 6:14 am तक
योग- अतिगण्ड योग अगले दिन 4:51 am तक (अशुभ है)
करण- वणिज करण 9:10 am तक
सूर्योदय- 5:24 am, सूर्यास्त 7:22 pm
अभिजित् नक्षत्र-11:55 am से 12:51 pm तक
राहुकाल- 2:07 pm से 3:42 pm शुभ कार्य वर्जित
दिशाशूल- दक्षिण दिशा।

जून शुभ दिन:-  23 (सवेरे 9 तक), 24, 25 (सवेरे 10 तक), 30
जून अशुभ दिन:- 26, 27, 28, 29.

भद्रा:- 23 जून 9:14 am से 23 जून 9:42 pm तक ( भद्रा मे मुण्डन, गृहारंभ, गृहप्रवेश, विवाह, रक्षाबंधन आदि शुभ काम नही करने चाहिये , लेकिन भद्रा मे स्त्री प्रसंग, यज्ञ, तीर्थस्नान, आपरेशन, मुकद्दमा, आग लगाना, काटना, जानवर संबंधी काम किए जा सकतें है।

गण्ड मूल आरम्भ:-
22 जून, रेवती नक्षत्र, 5:03 am से 24 जून को अश्विनी नक्षत्र 8:04 am तक गंडमूल रहेगें। गंडमूल नक्षत्रों मे जन्म लेने वाले बच्चो का मूलशांति पूजन आवश्यक है।

पंचक प्रारंभ:- 18 जून को 6:43 pm से 23 जून 6:14 am तक  पंचक नक्षत्रों  मे निम्नलिखित काम नही करने चाहिए, 1.छत बनाना या स्तंभ बनाना( lantern  or Pillar ) 2.लकडी  या  तिनके तोड़ना , 3.चूल्हा लेना या बनाना, 4. दाह संस्कार करना (cremation) 5.पंलग चारपाई, खाट , चटाई  बुनना  या बनाना 6.बैठक का सोफा या गद्दियाँ बनाना । 7 लकड़ी ,तांबा ,पीतल को जमा करना ।(इन कामो के सिवा अन्य सभी शुभ  काम पंचको मे किए जा सकते है।

सर्वार्थ सिद्ध योग:- 23 जून 5:24 am से 24 जून 8:04 am तक  (यह एक शुभयोग है, इसमे कोई व्यापारिक या कि राजकीय अनुबन्ध (कान्ट्रेक्ट) करना, परीक्षा, नौकरी अथवा चुनाव आदि के लिए आवेदन करना, क्रय-विक्रय करना, यात्रा या मुकद्दमा करना, भूमि , सवारी, वस्त्र आभूषणादि का क्रय करने के लिए शीघ्रतावश गुरु-शुक्रास्त, अधिमास एवं वेधादि का विचार सम्भव न हो, तो ये सर्वार्थसिद्धि योग ग्रहण किए जा सकते हैं।
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आगामी व्रत तथा त्यौहार:-
24 जून- योगिनी एकादशी। 26 जून- प्रदोष व्रत। 27 जून- मासिक शिवरात्रि। 29 जून- आषाढ़ अमावस्या। 30 जून- गुप्त नवरात्रे प्रारंभ।
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विशेष:- जो व्यक्ति वाराणसी  से बाहर अथवा देश से बाहर रहते हो, वह ज्योतिषीय परामर्श हेतु paytm या Bank transfer द्वारा परामर्श फीस अदा करके, फोन द्वारा ज्योतिषीय परामर्श प्राप्त कर सकतें है
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आपका दिन मंगलमय हो . 💐💐💐
आचार्य मोरध्वज शर्मा 
श्री काशी विश्वनाथ मंदिर वाराणसी उत्तर प्रदेश।। 
9648023364
9129998000
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English Translation :-
Article:- Yogini Ekadashi, 24.06.2022


Ekadashi starts:- 23.06.2022, 9:42 pm
Ekadashi ends:-24.06.2022, 11:13 pm
Parana time -25.06.2022, 05:43 am to 8:12 am.
Parana Duration:- 2 hours 48 minutes.
Hari Vasar ends - June 25 at 05:43 am

According to the story described in Hindu religious scriptures, Lord Vishnu created a total of 26 Ekadashis including the Ekadashis of Purushottama month from his body for the welfare of mankind.

According to Hindu scriptures, the importance of Ekadashi date of Krishna and Shukla Paksha coming every month is very high. Each Ekadashi has its own significance in the mythological texts. Due to these characteristics, their names have also been kept different. Altogether there are twenty four Ekadashis in a year, adding the Ekadashis of Mal month, their number becomes 26.

Lord Shri Krishna ji himself has described Ekadashi date as powerful as himself through Gita.

Yogini Ekadashi fast is observed on the Ekadashi of Krishna Paksha in the month of Ashadha. In the year 2022, observing Yogini Ekadashi fast on 24th June, the fast will be broken on 25th June.

Significance of Yogini Ekadashi Vrat:-
1. Yogini Ekadashi is famous for its virtuous effect in all the three worlds. Which is also mentioned in Padma Purana.
Yogini Ekadashi fast helps those who observe it to attain prosperity, good health, success and recognition in their life. Is.

2. By observing the fast of this Ekadashi, the sins created by cutting down the Peepal tree are destroyed, and in the end one attains the heavenly world.

3. According to the scriptures, observing Yogini Ekadashi fasting destroys all the sins, as well as enjoyment in this world and liberation in the afterlife.

4. With the effect of this fast, one's curse is also removed, and the devotees attain salvation after attaining longevity as a result of the divine blessings of Lord Vishnu.

5. Due to the virtuous effect of Yogini Ekadashi fast, all the diseases (all diseases) of the body are destroyed, and beautiful form, qualities and fame are also attained.

6. By observing the fast of Yogini Ekadashi, the devotee gets prosperity and happiness in life.

7. Regarding Yogini Ekadashi, it is mentioned in the scriptures that the devotee who observes Yogini Ekadashi fast with devotion, he becomes free from his past and present sins.


Yogini Ekadashi Vrat Puja Method:-
1. Yogini Ekadashi fasting starts from the night of Dashami Tithi. The fasting should give up tamasic food and take salt free food from the day of Dashami i.e. the night before fasting. The fasting should also not take food made of barley, wheat and moong dal.

2. It is necessary for the devotees to follow celibacy from that day itself, if possible, they should sleep on the ground.

3. On the day of Ekadashi, wake up early in the morning and take a vow of fasting after taking bath.

4. Lord Shree Narayan is worshiped on the day of Yogini Ekadashi.

5. Establish an idol or beautiful picture of Lord Vishnu on a wooden post.

6. Kumbh should be established with coconut on the same altar.

7. After that, worship the idol of Lord Vishnu with flowers, incense, lamp etc. Panchopachar or Shodashopachar worship according to your ability.

8. After that it is very important to read or listen to the story of Yogini Ekadashi by offering to God.

9. After worship, the aarti of Lord ji should be done with devotion.

10. Worship of Yogini Ekadashi can be done by the devotee or the fasting person himself, or can also be done by a learned Brahmin.

11. Peepal tree should also be worshiped on this day after Ekadashi worship.

12. After that, doing charity work according to one's ability is also very beneficial.

13. While meditating on Lord Vishnu (Narayan) on the night of Ekadashi, the fast must also do night awakening.

Parana of Yogini Ekadashi fast:-
After the Yogini Ekadashi fast, on the day of Dwadashi, it is the law to give food to the Brahmins and give them Dakshina. In this way, by following the rules, the devotees get untouched merit.


Yogini Ekadashi Vrat story:-
It is a matter of Mahabharata period that once Dharmaraja Yudhishthira was listening to Lord Krishna about the importance of fasting on Ekadashis.

He told Lord Shri Krishna that what is the significance of Ekadashi of Krishna Paksha of Lord Ashadha month and what is the name of this Ekadashi?

Lord Shri Krishna said, O Rajan, the name of this Ekadashi is Yogini. In the whole world, whoever fasts duly on this Ekadashi and worships the Lord, all his sins are destroyed. He enjoys all the comforts, pleasures and luxuries in his life and in the end he attains salvation. This fast of Yogini Ekadashi is famous in all the three worlds.

Then Yudhishthira said that after hearing the importance of Lord Yogini Ekadashi from your mouth, my curiosity has increased even more, please tell a little detail about it. Now Lord Shri Krishna started saying, O Dharmashrestha, I narrate a story described in the Puranas, listen carefully to it.
 
A king named Kuber used to rule in the city of heaven called Alkapuri. He was a very pious king and a worshiper of Lord Shiva. No obstacle could stop him from worshiping Lord Shiva. For the worship of Lord Shiva, a gardener named Hem made flowers for him. Used to arrange He used to give flowers to King Kubera every day before the worship. Hem loved his wife Vishalakshi very much, she was a very beautiful woman. What happened one day that Hem had brought flowers for worship, but on the way he thought that there is time for worship now, why not go home, he caught the path of his house by the time he came. After coming home, seeing his wife, he became enamored and started having pleasure with her.

On the other hand, the time of worship was passing and King Kuber was getting distraught due to non-availability of flowers. When the time of worship was over and Hem did not reach with flowers, the king sent his soldiers and asked them to find him. The soldiers returned and told that the Maharaj is a great sinner, he is a great performer, he was busy enjoying with his wife. Hearing this, Kubera's anger reached the seventh heaven.

 He immediately asked Hem to be caught. Now Hem was standing in front of King Kubera trembling. Kubera enraged Hem and said that O lowly great sinner, you have disrespected Lord Shiva because of sex, I curse you that you will suffer the separation of a woman and go to the world of death and become a leper. Now Hem Mali reached the ground floor due to the curse of Kubera and got leprosy.

While living in heaven, he did not feel any sorrow. But here on earth, along with hunger and thirst, he was facing a serious disease leprosy, he could not see any end to his sufferings, but he had also worshiped Lord Shiva, just say his good deeds that he would one day While roaming around, Markandeya reached the sage's ashram. The beauty of his ashram was visible on sight. Similar to the meeting of Brahma, there was also the view of the meeting of the sage Markandeya. He fell at his feet and on Maharishi's request, made him aware of his agony.

Now sage Markandaya said that you have spoken the truth to me, so I will tell you a remedy. Yogini Ekadashi falls on the Krishna Paksha of Ashadha month. If you fast on this method, then all your sins will be destroyed. Now the gardener prostrates to the sage and observes Yogini Ekadashi as per his instructions. Thus he got rid of his curse and came back to his original form and started living happily with his wife.

Lord Shri Krishna after narrating the story started saying to Yudhishthar, O Rajan, the virtue that one gets after feeding 88 thousand brahmins, the same virtue is attained by fasting on Yogini Ekadashi methodically and the fasting person enjoys happiness in this world and attains salvation in that world. receives.
 
(End)

Next article:-
1. Serial astrological article from June 15 to June 27 on the topic "The result of being situated in twelve parts of the rulers of different houses in the horoscope".
2. Article on "Ashadhi Amavasya" on 28 June.
3. Serial article on "Gupt Navratri" from June 29


Long live Rama
Today's Panchang, Delhi
Thursday, 23.6.2022
Shree Samvat 2079
Shaka Samvat 1944
Surya Ayan- Uttarayan, Round-North Round
Rituah - Summer season.
Month - Ashadha month.
Paksha - Krishna Paksha.
Date - Dashami date till 9:43 pm
Moon sign- Moon in Pisces till 6:14 am and then Aries.
Nakshatra - Revati Nakshatra till 6:14 am
Yoga- Atiganda Yoga till 4:51 am the next day (inauspicious)
Karan- Vanij Karan till 9:10 am
Sunrise- 5:24 am, Sunset 7:22 pm
Abhijit Nakshatra - 11:55 am to 12:51 pm
Rahukaal- 2:07 pm to 3:42 pm Good work prohibited
Dishashul - South direction.

June Lucky Days:- 23 (till 9 am), 24, 25 (till 10 am), 30
June inauspicious days:- 26, 27, 28, 29.

Bhadra:- 23 June 9:14 am to 23 June 9:42 pm (Shunning, housewarming, home entry, marriage, Rakshabandhan etc. should not be done in Bhadra, but in Bhadra, women affairs, yagya, pilgrimage, operation, lawsuit, Fire, cutting, animal related work can be done.

Gand Mool Aarambh:-
On June 22, Revati Nakshatra, from 5:03 am to June 24, Ashwini Nakshatra will remain Gandmool till 8:04 am. Children born in Gandmool constellations need to worship Moolshanti.

Panchak Start:- On 18th June from 6:43 pm to 23rd June 6:14 am the following things should not be done in Panchak Nakshatras, 1. Making a roof or making a pillar (lantern or pillar) 2. Breaking wood or straws, 3. Hearth Taking or making, 4. Cremation 5. Bed bed, cot, mat, weaving or making 6. Making sofas or mattresses for the meeting. 7 To deposit wood, copper, brass. (Apart from these works, all other auspicious works can be done in Panchko.

Sarvartha Siddha Yoga:- 23 June 5:24 am to 24 June 8:04 am (This is an auspicious yoga, in this, making any business or state contract, applying for examination, job or election etc., purchasing- If the idea of ​​Guru-Shukrast, Adhimaas and Vedadi is not possible in a hurry to make sale, travel or litigation, purchase of land, rides, clothes, jewelery etc., then these Sarvarthasiddhi Yogas can be adopted.


Upcoming fasts and festivals:-
June 24 - Yogini Ekadashi. 26 June - Pradosh fast. June 27 - Monthly Shivratri. June 29- Ashadh Amavasya. 30 June – Gupt Navratri begins.

Special:- The person who lives outside Varanasi or outside the country, he can get astrological consultation by phone for astrological consultation by paying the consultation fee through paytm or bank transfer.

Have a good day .
Acharya Mordhwaj Sharma
Shri Kashi Vishwanath Temple Varanasi Uttar Pradesh.
9648023364
9129998000

21 जून 2022

विश्व योग दिवस 21 जून ।। World Yoga Day 21 June

विश्व योग दिवस 21 जून विशेष
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योगो के प्रकार महत्त्व एवं इनके द्वारा जीवन विकास  
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योग का वर्णन वेदों में, फिर उपनिषदों में और फिर गीता में मिलता है, लेकिन पतंजलि और गुरु गोरखनाथ ने योग के बिखरे हुए ज्ञान को व्यवस्थित रूप से लिपिबद्ध किया। योग हिन्दू धर्म के छह दर्शनों में से एक है। ये छह दर्शन हैं- 1.न्याय 2.वैशेषिक 3.मीमांसा 4.सांख्य 5.वेदांत और 6.योग। आओ जानते हैं योग के बारे में वह सब कुछ जो आप जानना चाहते हैं।

योग के मुख्य अंग:👉  यम, नियम, अंग संचालन, आसन, क्रिया, बंध, मुद्रा, प्राणायाम, प्रत्याहार, धारणा, ध्यान और समाधि। इसके अलावा योग के प्रकार, योगाभ्यास की बाधाएं, योग का इतिहास, योग के प्रमुख ग्रंथ।

योग के प्रकार:👉 1.राजयोग, 2.हठयोग, 3.लययोग, 4. ज्ञानयोग, 5.कर्मयोग और 6. भक्तियोग। इसके अलावा बहिरंग योग, नाद योग, मंत्र योग, तंत्र योग, कुंडलिनी योग, साधना योग, क्रिया योग, सहज योग, मुद्रायोग, और स्वरयोग आदि योग के अनेक आयामों की चर्चा की जाती है। लेकिन सभी उक्त छह में समाहित हैं।

1.पांच यम:👉 1.अहिंसा, 2.सत्य, 3.अस्तेय, 4.ब्रह्मचर्य और 5.अपरिग्रह।

2.पांच नियम:👉  1.शौच, 2.संतोष, 3.तप, 4.स्वाध्याय और 5.ईश्वर प्राणिधान।

3.अंग संचालन:👉  1.शवासन, 2.मकरासन, 3.दंडासन और 4. नमस्कार मुद्रा में अंग संचालन किया जाता है जिसे सूक्ष्म व्यायाम कहते हैं। इसके अंतर्गत आंखें, कोहनी, घुटने, कमर, अंगुलियां, पंजे, मुंह आदि अंगों की एक्सरसाइज की जाती है।

4.प्रमुख बंध:👉  1.महाबंध, 2.मूलबंध, 3.जालन्धरबंध और 4.उड्डियान।

5.प्रमुख आसन:👉 किसी भी आसन की शुरुआत लेटकर अर्थात शवासन (चित्त लेटकर) और मकरासन (औंधा लेटकर) में और बैठकर अर्थात दंडासन और वज्रासन में, खड़े होकर अर्थात सावधान मुद्रा या नमस्कार मुद्रा से होती है। यहां सभी तरह के आसन के नाम दिए गए हैं।

1.सूर्यनमस्कार, 2.आकर्णधनुष्टंकारासन, 3.उत्कटासन, 4.उत्तान कुक्कुटासन, 5.उत्तानपादासन, 6.उपधानासन, 7.ऊर्ध्वताड़ासन, 8.एकपाद ग्रीवासन, 9.कटि उत्तानासन, 10.कन्धरासन, 11.कर्ण पीड़ासन, 12.कुक्कुटासन, 13.कुर्मासन, 14.कोणासन, 15.गरुड़ासन 16.गर्भासन, 17.गोमुखासन, 18.गोरक्षासन, 19.चक्रासन, 20.जानुशिरासन, 21.तोलांगुलासन 22.त्रिकोणासन, 23.दीर्घ नौकासन, 24.द्विचक्रिकासन, 25.द्विपादग्रीवासन, 26.ध्रुवासन 27.नटराजासन, 28.पक्ष्यासन, 29.पर्वतासन, 31.पशुविश्रामासन, 32.पादवृत्तासन 33.पादांगुष्टासन, 33.पादांगुष्ठनासास्पर्शासन, 35.पूर्ण मत्स्येन्द्रासन, 36.पॄष्ठतानासन 37.प्रसृतहस्त वृश्चिकासन, 38.बकासन, 39.बध्दपद्मासन, 40.बालासन, 41.ब्रह्मचर्यासन 42.भूनमनासन, 43.मंडूकासन, 44.मर्कटासन, 45.मार्जारासन, 46.योगनिद्रा, 47.योगमुद्रासन, 48.वातायनासन, 49.वृक्षासन, 50.वृश्चिकासन, 51.शंखासन, 52.शशकासन, 53.सिंहासन, 55.सिद्धासन, 56.सुप्त गर्भासन, 57.सेतुबंधासन, 58.स्कंधपादासन, 59.हस्तपादांगुष्ठासन, 60.भद्रासन, 61.शीर्षासन, 62.सूर्य नमस्कार, 63.कटिचक्रासन, 64.पादहस्तासन, 65.अर्धचन्द्रासन, 66.ताड़ासन, 67.पूर्णधनुरासन, 68.अर्धधनुरासन, 69.विपरीत नौकासन, 70.शलभासन, 71.भुजंगासन, 72.मकरासन, 73.पवन मुक्तासन, 74.नौकासन, 75.हलासन, 76.सर्वांगासन, 77.विपरीतकर्णी आसन, 78.शवासन, 79.मयूरासन, 80.ब्रह्म मुद्रा, 81.पश्चिमोत्तनासन, 82.उष्ट्रासन, 83.वक्रासन, 84.अर्ध-मत्स्येन्द्रासन, 85.मत्स्यासन, 86.सुप्त-वज्रासन, 87.वज्रासन, 88.पद्मासन आदि।

6.जानिए प्राणायाम क्या है:-
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प्राणायाम के पंचक:👉 1.व्यान, 2.समान, 3.अपान, 4.उदान और 5.प्राण।

प्राणायाम के प्रकार:👉 1.पूरक, 2.कुम्भक और 3.रेचक। इसे ही हठयोगी अभ्यांतर वृत्ति, स्तम्भ वृत्ति और बाह्य वृत्ति कहते हैं। अर्थात श्वास को लेना, रोकना और छोड़ना। अंतर रोकने को आंतरिक कुम्भक और बाहर रोकने को बाह्म कुम्भक कहते हैं।

प्रमुख प्राणायाम:👉 1.नाड़ीशोधन, 2.भ्रस्त्रिका, 3.उज्जाई, 4.भ्रामरी, 5.कपालभाती, 6.केवली, 7.कुंभक, 8.दीर्घ, 9.शीतकारी, 10.शीतली, 11.मूर्छा, 12.सूर्यभेदन, 13.चंद्रभेदन, 14.प्रणव, 15.अग्निसार, 16.उद्गीथ, 17.नासाग्र, 18.प्लावनी, 19.शितायु आदि।

अन्य प्राणायाम:👉 1.अनुलोम-विलोम प्राणायाम, 2.अग्नि प्रदीप्त प्राणायाम, 3.अग्नि प्रसारण प्राणायाम, 4.एकांड स्तम्भ प्राणायाम, 5.सीत्कारी प्राणायाम, 6.सर्वद्वारबद्व प्राणायाम, 7.सर्वांग स्तम्भ प्राणायाम, 8.सम्त व्याहृति प्राणायाम, 9.चतुर्मुखी प्राणायाम, 10.प्रच्छर्दन प्राणायाम, 11.चन्द्रभेदन प्राणायाम, 12.यन्त्रगमन प्राणायाम, 13.वामरेचन प्राणायाम, 14.दक्षिण रेचन प्राणायाम, 15.शक्ति प्रयोग प्राणायाम, 16.त्रिबन्धरेचक प्राणायाम, 17.कपाल भाति प्राणायाम, 18.हृदय स्तम्भ प्राणायाम, 19.मध्य रेचन प्राणायाम, 20.त्रिबन्ध कुम्भक प्राणायाम, 21.ऊर्ध्वमुख भस्त्रिका प्राणायाम, 22.मुखपूरक कुम्भक प्राणायाम, 23.वायुवीय कुम्भक प्राणायाम, 
24.वक्षस्थल रेचन प्राणायाम, 25.दीर्घ श्वास-प्रश्वास प्राणायाम, 26.प्राह्याभ्न्वर कुम्भक प्राणायाम, 27.षन्मुखी रेचन प्राणायाम 28.कण्ठ वातउदा पूरक प्राणायाम, 29.सुख प्रसारण पूरक कुम्भक प्राणायाम, 30.नाड़ी शोधन प्राणायाम व नाड़ी अवरोध प्राणायाम आदि।

7.योग क्रियाएं जानिएं:-
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प्रमुख 13 क्रियाएं:👉 1.नेती- सूत्र नेति, घॄत नेति, 2.धौति- वमन धौति, वस्त्र धौति, दण्ड धौति, 3.गजकरणी, 4.बस्ती- जल बस्ति, 5.कुंजर, 6.न्यौली, 7.त्राटक, 8.कपालभाति, 9.धौंकनी, 10.गणेश क्रिया, 11.बाधी, 12.लघु शंख प्रक्षालन और 13.शंख प्रक्षालयन।

8.मुद्राएं कई हैं:-
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6 आसन मुद्राएं:👉 1.व्रक्त मुद्रा, 2.अश्विनी मुद्रा, 3.महामुद्रा, 4.योग मुद्रा, 5.विपरीत करणी मुद्रा, 6.शोभवनी मुद्रा।

पंच राजयोग मुद्राएं👉  1.चाचरी, 2.खेचरी, 3.भोचरी, 4.अगोचरी, 5.उन्न्युनी मुद्रा।

10 हस्त मुद्राएं:👉  उक्त के अलावा हस्त मुद्राओं में प्रमुख दस मुद्राओं का महत्व है जो निम्न है: -1.ज्ञान मुद्रा, 2.पृथवि मुद्रा, 3.वरुण मुद्रा, 4.वायु मुद्रा, 5.शून्य मुद्रा, 6.सूर्य मुद्रा, 7.प्राण मुद्रा, 8.लिंग मुद्रा, 9.अपान मुद्रा, 10.अपान वायु मुद्रा।

अन्य मुद्राएं :👉 1.सुरभी मुद्रा, 2.ब्रह्ममुद्रा, 3.अभयमुद्रा, 4.भूमि मुद्रा, 5.भूमि स्पर्शमुद्रा, 6.धर्मचक्रमुद्रा, 7.वज्रमुद्रा, 8.वितर्कमुद्रा, 8.जनाना मुद्रा, 10.कर्णमुद्रा, 11.शरणागतमुद्रा, 12.ध्यान मुद्रा, 13.सुची मुद्रा, 14.ओम मुद्रा, 15.जनाना और चीन मुद्रा, 16.अंगुलियां मुद्रा 17.महात्रिक मुद्रा, 18.कुबेर मुद्रा, 19.चीन मुद्रा, 20.वरद मुद्रा, 21.मकर मुद्रा, 22.शंख मुद्रा, 23.रुद्र मुद्रा, 24.पुष्पपूत मुद्रा, 25.वज्र मुद्रा, 26श्वांस मुद्रा, 27.हास्य बुद्धा मुद्रा, 28.योग मुद्रा, 29.गणेश मुद्रा 30.डॉयनेमिक मुद्रा, 31.मातंगी मुद्रा, 32.गरुड़ मुद्रा, 33.कुंडलिनी मुद्रा, 34.शिव लिंग मुद्रा, 35.ब्रह्मा मुद्रा, 36.मुकुल मुद्रा, 37.महर्षि मुद्रा, 38.योनी मुद्रा, 39.पुशन मुद्रा, 40.कालेश्वर मुद्रा, 41.गूढ़ मुद्रा, 42.मेरुदंड मुद्रा, 43.हाकिनी मुद्रा, 45.कमल मुद्रा, 46.पाचन मुद्रा, 47.विषहरण मुद्रा या निर्विषिकरण मुद्रा, 48.आकाश मुद्रा, 49.हृदय मुद्रा, 50.जाल मुद्रा आदि।

9.प्रत्याहार:👉  इंद्रियों को विषयों से हटाने का नाम ही प्रत्याहार है। इंद्रियां मनुष्य को बाहरी विषयों में उलझाए रखती है।। प्रत्याहार के अभ्यास से साधक अन्तर्मुखिता की स्थिति प्राप्त करता है। जैसे एक कछुआ अपने अंगों को समेट लेता है उसी प्रकार प्रत्याहरी मनुष्य की स्थिति होती है। यम नियम, आसान, प्राणायाम को साधने से प्रत्याहार की स्थिति घटित होने लगती है।

10.धारणा:👉  चित्त को एक स्थान विशेष पर केंद्रित करना ही धारणा है। प्रत्याहार के सधने से धारणा स्वत: ही घटित होती है। धारणा धारण किया हुआ चित्त कैसी भी धारणा या कल्पना करता है, तो वैसे ही घटित होने लगता है। यदि ऐसे व्यक्ति किसी एक कागज को हाथ में लेकर यह सोचे की यह जल जाए तो ऐसा हो जाता है।

11.ध्यान :👉  जब ध्येय वस्तु का चिंतन करते हुए चित्त तद्रूप हो जाता है तो उसे ध्यान कहते हैं। पूर्ण ध्यान की स्थिति में किसी अन्य वस्तु का ज्ञान अथवा उसकी स्मृति चित्त में प्रविष्ट नहीं होती।

ध्यान के रूढ़ प्रकार:👉  स्थूल ध्यान, ज्योतिर्ध्यान और सूक्ष्म ध्यान।

ध्यान विधियां:👉  श्वास ध्यान, साक्षी भाव, नासाग्र ध्यान, विपश्यना ध्यान आदि हजारों ध्यान विधियां हैं।

12.समाधि:👉  यह चित्त की अवस्था है जिसमें चित्त ध्येय वस्तु के चिंतन में पूरी तरह लीन हो जाता है। योग दर्शन समाधि के द्वारा ही मोक्ष प्राप्ति को संभव मानता है।

समाधि की भी दो श्रेणियां हैं :👉  1.सम्प्रज्ञात और 2.असम्प्रज्ञात। 

सम्प्रज्ञात समाधि वितर्क, विचार, आनंद और अस्मितानुगत होती है। असम्प्रज्ञात में सात्विक, राजस और तामस सभी वृत्तियों का निरोध हो जाता है। इसे बौद्ध धर्म में संबोधि, जैन धर्म में केवल्य और हिन्दू धर्म में मोक्ष प्राप्त करना कहते हैं। इस सामान्य भाषा में मुक्ति कहते हैं।

पुराणों में मुक्ति के 6 प्रकार बताएं गए है जो इस प्रकार हैं-👉  1.साष्ट्रि, (ऐश्वर्य), 2.सालोक्य (लोक की प्राप्ति), 3.सारूप (ब्रह्मस्वरूप), 4.सामीप्य, (ब्रह्म के पास), 5.साम्य (ब्रह्म जैसी समानता) 6.लीनता या सायुज्य (ब्रह्म में लीन होकर ब्रह्म हो जाना)।

योगाभ्यास की बाधाएं:👉 आहार, प्रयास, प्रजल्प, नियमाग्रह, जनसंग और लौल्य। इसी को सामान्य भाषा में आहार अर्थात अतिभोजन, प्रयास अर्थात आसनों के साथ जोर-जबरदस्ती, प्रजल्प अर्थात अभ्यास का दिखावा, नियामाग्रह अर्थात योग करने के कड़े नियम बनाना, जनसंग अर्थात अधिक जनसंपर्क और अंत में लौल्य का मतलब शारीरिक और मानसिक चंचलता।

1.राजयोग:👉 यम, नियम, आसन, प्राणायम, प्रत्याहार, धारणा, ध्यान और समाधि यह पतंजलि के राजयोग के आठ अंग हैं। इन्हें अष्टांग योग भी कहा जाता है।

2.हठयोग:👉 षट्कर्म, आसन, मुद्रा, प्रत्याहार, ध्यान और समाधि- ये हठयोग के सात अंग है, लेकिन हठयोगी का जोर आसन एवं कुंडलिनी जागृति के लिए आसन, बंध, मुद्रा और प्राणायम पर अधिक रहता है। यही क्रिया योग है।

3.लययोग:👉 यम, नियम, स्थूल क्रिया, सूक्ष्म क्रिया, प्रत्याहार, धारणा, ध्यान और समाधि। उक्त आठ लययोग के अंग है।

4.ज्ञानयोग:👉 साक्षीभाव द्वारा विशुद्ध आत्मा का ज्ञान प्राप्त करना ही ज्ञान योग है। यही ध्यानयोग है।

5.कर्मयोग:👉 कर्म करना ही कर्म योग है। इसका उद्येश्य है कर्मों में कुशलता लाना। यही सहज योग है।

6.भक्तियोग :👉  भक्त श्रवण, कीर्तन, स्मरण, पादसेवन, अर्चन, वंदन, दास्य, सख्य और आत्मनिवेदन रूप- इन नौ अंगों को नवधा भक्ति कहा जाता है। भक्ति योगानुसार व्यक्ति सालोक्य, सामीप्य, सारूप तथा सायुज्य-मुक्ति को प्राप्त होता है, जिसे क्रमबद्ध मुक्ति कहा जाता है।

कुंडलिनी योग 👉 कुंडलिनी शक्ति सुषुम्ना नाड़ी में नाभि के निचले हिस्से में सोई हुई अवस्था में रहती है, जो ध्यान के गहराने के साथ ही सभी चक्रों से गुजरती हुई सहस्रार चक्र तक पहुंचती है। ये चक्र 7 होते हैं

मूलाधार, स्वाधिष्ठान, मणिपुर, अनाहत, विशुद्धि, आज्ञा और सहस्रार। 

72 हजार नाड़ियों में से प्रमुख रूप से तीन है: इड़ा, पिंगला और सुषुम्ना। इड़ा और पिंगला नासिका के दोनों छिद्रों से जुड़ी है जबकि सुषुम्ना भ्रकुटी के बीच के स्थान से। स्वरयोग इड़ा और पिंगला के विषय में विस्तृत जानकारी देते हुए स्वरों को परिवर्तित करने, रोग दूर करने, सिद्धि प्राप्त करने और भविष्यवाणी करने जैसी शक्तियाँ प्राप्त करने के विषय में गहन मार्गदर्शन होता है। दोनों नासिका से सांस चलने का अर्थ है कि उस समय सुषुम्ना क्रियाशील है। ध्यान, प्रार्थना, जप, चिंतन और उत्कृष्ट कार्य करने के लिए यही समय सर्वश्रेष्ठ होता है।

योग का संक्षिप्त इतिहास
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योग का उपदेश सर्वप्रथम हिरण्यगर्भ ब्रह्मा ने सनकादिकों को, पश्चात विवस्वान (सूर्य) को दिया। बाद में यह दो शखाओं में विभक्त हो गया। एक ब्रह्मयोग और दूसरा कर्मयोग। ब्रह्मयोग की परम्परा सनक, सनन्दन, सनातन, कपिल, आसुरि, वोढु और पच्चंशिख नारद-शुकादिकों ने शुरू की थी। यह ब्रह्मयोग लोगों के बीच में ज्ञान, अध्यात्म और सांख्य योग नाम से प्रसिद्ध हुआ।

दूसरी कर्मयोग की परम्परा विवस्वान की है। विवस्वान ने मनु को, मनु ने इक्ष्वाकु को, इक्ष्वाकु ने राजर्षियों एवं प्रजाओं को योग का उपदेश दिया। उक्त सभी बातों का वेद और पुराणों में उल्लेख मिलता है। वेद को संसार की प्रथम पुस्तक माना जाता है जिसका उत्पत्ति काल लगभग 10000 वर्ष पूर्व का माना जाता है। पुरातत्ववेत्ताओं अनुसार योग की उत्पत्ति 5000 ई.पू. में हुई। गुरु-शिष्य परम्परा के द्वारा योग का ज्ञान परम्परागत तौर पर एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी को मिलता रहा।

भारतीय योग जानकारों के अनुसार योग की उत्पत्ति भारत में लगभग 5000 वर्ष से भी अधिक समय पहले हुई थी। योग की सबसे आश्चर्यजनक खोज 1920 के शुरुआत में हुई। 1920 में पुरातत्व वैज्ञानिकों ने ‘सिंधु सरस्वती सभ्यता’ को खोजा था जिसमें प्राचीन हिंदू धर्म और योग की परंपरा होने के सबूत मिलते हैं। सिंधु घाटी सभ्यता को 3300-1700 बी.सी.ई. पूराना माना जाता है।

योग ग्रंथ योग सूत्र
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 वेद, उपनिषद्, भगवद गीता, हठ योग प्रदीपिका, योग दर्शन, शिव संहिता और विभिन्न तंत्र ग्रंथों में योग विद्या का उल्लेख मिलता है। सभी को आधार बनाकर पतंजलि ने योग सूत्र लिखा। योग पर लिखा गया सर्वप्रथम सुव्यव्यवस्थित ग्रंथ है- 

योगसूत्र👉 योगसूत्र को पांतजलि ने 200 ई.पूर्व लिखा था। इस ग्रंथ पर अब तक हजारों भाष्य लिखे गए हैं, लेकिन कुछ खास भाष्यों का यहां उल्लेख लिखते हैं।

व्यास भाष्य👉 व्यास भाष्य का रचना काल 200-400 ईसा पूर्व का माना जाता है। महर्षि पतंजलि का ग्रंथ योग सूत्र योग की सभी विद्याओं का ठीक-ठीक संग्रह माना जाता है। इसी रचना पर व्यासजी के ‘व्यास भाष्य’ को योग सूत्र पर लिखा प्रथम प्रामाणिक भाष्य माना जाता है। व्यास द्वारा महर्षि पतंजलि के योग सूत्र पर दी गई विस्तृत लेकिन सुव्यवस्थित व्याख्या।

तत्त्ववैशारदी 👉 पतंजलि योगसूत्र के व्यास भाष्य के प्रामाणिक व्याख्याकार के रूप में वाचस्पति मिश्र का ‘तत्त्ववैशारदी’ प्रमुख ग्रंथ माना जाता है। वाचस्पति मिश्र ने योगसूत्र एवं व्यास भाष्य दोनों पर ही अपनी व्याख्या दी है। तत्त्ववैशारदी का रचना काल 841 ईसा पश्चात माना जाता है।

योगवार्तिक👉  विज्ञानभिक्षु का समय विद्वानों के द्वारा 16वीं शताब्दी के मध्य में माना जाता है। योगसूत्र पर महत्वपूर्ण व्याख्या विज्ञानभिक्षु की प्राप्त होती है जिसका नाम ‘योगवार्तिक’ है।

भोजवृत्ति👉  भोज के राज्य का समय 1075-1110 विक्रम संवत माना जाता है। धरेश्वर भोज के नाम से प्रसिद्ध व्यक्ति ने योग सूत्र पर जो ‘भोजवृत्ति नामक ग्रंथ लिखा है वह भोजवृत्ति योगविद्वजनों के बीच समादरणीय एवं प्रसिद्ध माना जाता है। कुछ इतिहासकार इसे 16वीं सदी का ग्रंथ मानते हैं।

अष्टांग योग👉  इसी योग का सर्वाधिक प्रचलन और महत्व है। इसी योग को हम अष्टांग योग योग के नाम से जानते हैं। अष्टांग योग अर्थात योग के आठ अंग। दरअसल पतंजल‍ि ने योग की समस्त विद्याओं को आठ अंगों में… श्रेणीबद्ध कर दिया है। लगभग 200 ईपू में महर्षि पतंजलि ने योग को लिखित रूप में संग्रहित किया और योग-सूत्र की रचना की। योग-सूत्र की रचना के कारण पतंजलि को योग का पिता कहा जाता है।

यह आठ अंग हैं👉 (1)यम (2)नियम (3)आसन (4) प्राणायाम (5)प्रत्याहार (6)धारणा (7) ध्यान (8)समाधि। उक्त आठ अंगों के अपने-अपने उप अंग भी हैं। वर्तमान में योग के तीन ही अंग प्रचलन में हैं- आसन, प्राणायाम और ध्यान।

योग सूत्र👉 200 ई.पू. रचित महर्षि पतंजलि का ‘योगसूत्र’ योग दर्शन का प्रथम व्यवस्थित और वैज्ञानिक अध्ययन है। योगदर्शन इन चार विस्तृत भाग, जिन्हें इस ग्रंथ में पाद कहा गया है, में विभाजित है👉 समाधिपाद, साधनपाद, विभूतिपाद तथा कैवल्यपाद।

प्रथम पाद का मुख्य विषय चित्त की विभिन्न वृत्तियों के नियमन से समाधि के द्वारा आत्म साक्षात्कार करना है। द्वितीय पाद में पाँच बहिरंग साधन- यम, नियम, आसन, प्राणायाम और प्रत्याहार का विवेचन है।

तृतीय पाद में अंतरंग तीन धारणा, ध्यान और समाधि का वर्णन है। इसमें योगाभ्यास के दौरान प्राप्त होने वाली विभिन्न सिद्धियों का भी उल्लेख हुआ है, किन्तु ऋषि के अनुसार वे समाधि के मार्ग की बाधाएँ ही हैं।

चतुर्थ कैवल्यपाद मुक्ति की वह परमोच्च अवस्था है, जहाँ एक योग साधक अपने मूल स्रोत से एकाकार हो जाता है।

‌दूसरे ही सूत्र में योग की परिभाषा देते हुए पतंजलि कहते हैं- ‘योगाश्चित्त वृत्तिनिरोधः’। अर्थात योग चित्त की वृत्तियों का संयमन है। चित्त वृत्तियों के निरोध के लिए महर्षि पतंजलि ने द्वितीय और तृतीय पाद में जिस अष्टांग योग साधन का उपदेश दिया है, उसका संक्षिप्त परिचय निम्नानुसार है:-

‌ 1👉 यम: कायिक, वाचिक तथा मानसिक इस संयम के लिए अहिंसा, सत्य, अस्तेय चोरी न करना, ब्रह्मचर्य जैसे अपरिग्रह आदि पाँच आचार विहित हैं। इनका पालन न करने से व्यक्ति का जीवन और समाज दोनों ही दुष्प्रभावित होते हैं।

‌2👉 नियम: मनुष्य को कर्तव्य परायण बनाने तथा जीवन को सुव्यवस्थित करते हेतु नियमों का विधान किया गया है। इनके अंतर्गत शौच, संतोष, तप, स्वाध्याय तथा ईश्वर प्रणिधान का समावेश है। शौच में बाह्य तथा आन्तर दोनों ही प्रकार के शुद्धि समाविष्ट है

3👉 आसन: पतंजलि ने स्थिर तथा सुखपूर्वक बैठने की क्रिया को आसन कहा है। परवर्ती विचारकों ने अनेक आसनों की कल्पना की है। वास्तव में आसन हठयोग का एक मुख्य विषय ही है। इनसे संबंधित ‘हठयोग प्रतीपिका’ ‘घरेण्ड संहिता’ तथा ‘योगाशिखोपनिषद्’ में विस्तार से वर्णन मिलता है।

4👉 प्राणायाम: योग की यथेष्ट भूमिका के लिए नाड़ी साधन और उनके जागरण के लिए किया जाने वाला श्वास और प्रश्वास का नियमन प्राणायाम है। प्राणायाम मन की चंचलता और विक्षुब्धता पर विजय प्राप्त करने के लिए बहुत सहायक है।

5👉 प्रत्याहार: इंद्रियों को विषयों से हटाने का नाम ही प्रत्याहार है। इंद्रियाँ मनुष्य को बाह्यभिमुख किया करती हैं। प्रत्याहार के इस अभ्यास से साधक योग के लिए परम आवश्यक अन्तर्मुखिता की स्थिति प्राप्त करता है।

6👉 धारणा: चित्त को एक स्थान विशेष पर केंद्रित करना ही धारणा है।

7👉 ध्यान: जब ध्येय वस्तु का चिंतन करते हुए चित्त तद्रूप हो जाता है तो उसे ध्यान कहते हैं। पूर्ण ध्यान की स्थिति में किसी अन्य वस्तु का ज्ञान अथवा उसकी स्मृति चित्त में प्रविष्ट नहीं होती।

8👉 समाधि: यह चित्त की अवस्था है जिसमें चित्त ध्येय वस्तु के चिंतन में पूरी तरह लीन हो जाता है। योग दर्शन समाधि के द्वारा ही मोक्ष प्राप्ति को संभव मानता है।

समाधि की भी दो श्रेणियाँ हैं👉  सम्प्रज्ञात और असम्प्रज्ञात। सम्प्रज्ञात समाधि वितर्क, विचार, आनंद और अस्मितानुगत होती है। असम्प्रज्ञात में सात्विक, राजस और तामस सभी वृत्तियों का निरोध हो जाता है।,

योग साधना द्वारा जीवन विकास
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योग का नाम सुनते ही कितने ही लोग चौंक उठते हैं उनकी निगाह में यह एक ऐसी चीज है जिसे लम्बी जटा वाला और मृग चर्मधारी साधु जंगलों या गुफाओं में किया करते हैं। इसलिये वे सोचते हैं कि ऐसी चीज से हमारा क्या सम्बन्ध? हम उसकी चर्चा ही क्यों करें?

पर ऐसे विचार इस विषय में उन्हीं लोगों के होते हैं जिन्होंने कभी इसे सोचने-विचारने का कष्ट नहीं किया। अन्यथा योग जीवन की एक सहज, स्वाभाविक अवस्था है जिसका उद्देश्य समस्त मानवीय इन्द्रियों और शक्तियों का उचित रूप से विकास करना और उनको एक नियम में चलाना है। इसीलिये योग शास्त्र में “चित्त वृत्तियों का निरोध” करना ही योग बतलाया गया है। गीता में ‘कर्म की कुशलता’ का नाम योग है तथा ‘सुख-दुख के विषय में समता की बुद्धि रखने’ को भी योग बतलाया गया है। इसलिये यह समझना कोरा भ्रम है कि समाधि चढ़ाकर, पृथ्वी में गड्ढा खोदकर बैठ जाना ही योग का लक्षण है। योग का उद्देश्य तो वही है जो योग शास्त्र में या गीता में बतलाया गया है। हाँ इस उद्देश्य को पूरा करने की विधियाँ अनेक हैं, उनमें से जिसको जो अपनी प्रकृति और रुचि के अनुकूल जान पड़े वह उसी को अपना सकता है। नीचे हम एक योग विद्या के ज्ञाता के लेख से कुछ ऐसा योगों का वर्णन करते हैं जिनका अभ्यास घर में रहते हुये और सब कामों को पूर्ववत् करते हुये अप्रत्यक्ष रीति से ही किया जा सकता है-

1. कैवल्य योग👉 कैवल्य स्थिति को योग शास्त्र में सबसे बड़ा माना गया है। दूसरों का आश्रय छोड़कर पूर्ण रूप से अपने ही आधार पर रहना और प्रत्येक विषय में अपनी शक्ति का अनुभव करना इसका ध्येय हैं। साधारण स्थिति में मनुष्य अपने सभी सुखों के लिए दूसरों पर निर्भर रहता है। यह एक प्रकार की पराधीनता है और पराधीनता में दुख होना आवश्यक है। इसलिये योगी सब दृष्टियों से पूर्ण स्वतंत्र होने की चेष्टा करते हैं। जो इस आदर्श के सर्वोच्च शिखर पर पहुँच जाते हैं वे ही कैवल्य की स्थिति में अथवा मुक्तात्मा समझे जा सकते हैं। पर कुछ अंशों में इसका अभ्यास सब कोई कर सकते हैं और उसके अनुसार स्वाधीनता का सुख भी भोग सकते हैं।

2. सुषुप्ति योग👉 निद्रावस्था में भी मनुष्य एक प्रकार की समाधि का अनुभव कर सकता है। जिस समय निद्रा आने लगती है उस समय यदि पाठक अनुभव करने लगेंगे तो एक वर्ष के अभ्यास से उनको आत्मा के अस्तित्व को ज्ञान हो जायेगा। सोते समय जैसा विचार करके सोया जायगा उसका शरीर और मन पर प्रभाव अवश्य पड़ेगा। जिस व्यक्ति को कोई बीमारी रहती है वह यदि सोने के समय पूर्ण आरोग्य का विचार मन में लायेगा और “मैं बीमार नहीं हूँ।” ऐसे श्रेष्ठ संकल्प के साथ सोयेगा तो आगामी दिन से बीमारी दूर होने का अनुभव होने लगेगा। सुषुप्ति योग की एक विधि यह भी है कि निद्रा आने के समय जिसको जागृति और निद्रा संधि समय कहा जाता है, किसी उत्तम मंत्र का जप अर्थ का ध्यान रखते हुए करना और वैसे करते ही सो जाना। तो जब आप जगेंगे तो वह मंत्र आपको अपने मन में उसी प्रकार खड़ा मिलेगा। जब ऐसा होने लगे तब आप यह समझ लीजिये कि आप रात भर जप करते रहें। यह जप बिस्तरे पर सोते-सोते ही करना चाहिये और उस समय अन्य किसी बात को ध्यान मन में नहीं लाना चाहिये।

3. स्वप्न योग👉  स्वप्न मनुष्य को सदा ही आया करते हैं, उनमें से कुछ अच्छे होते हैं और कुछ खराब। इसका कारण हमारे शुभ और अशुभ विचार ही होते हैं। इसलिये आप सदैव श्रेष्ठ विचार और कार्य करके तथा सोते समय वैसा ही ध्यान करके उत्तम स्वप्न देख सकते हैं। इसके लिये जैसा आपका उद्देश्य हो वैसा ही विचार भी कर सकते हैं। उदाहरण के लिये यदि आपकी इच्छा ब्रह्मचर्य पालन की हो तो भीष्म पितामह का ध्यान कीजिये, दृढ़ व्रत और सत्य प्रेम होना हो तो श्रीराम चंद्र की कल्पना कीजिये, बलवान बनने का ध्येय हो तो भीमसेन का अथवा हनुमान जी का स्मरण कीजिये। आप सोते समय जिसकी कल्पना और ध्यान करेंगे स्वप्न में आपको उसी विषय का अनुभव होता रहेगा।

4. बुद्धियोग👉  तर्क-वितर्क से परे और श्रद्धा-भक्ति से युक्त निश्चयात्मक ज्ञान धारक शक्ति का नाम ही बुद्धि है। ऐसी ही बुद्धि की साधना से योग की विलक्षण सिद्धियाँ प्राप्त होती हैं। यद्यपि अपने को आस्तिक मानने से आप परमेश्वर पर भरोसा रखते हैं, पर तर्क-युक्त बात ऐसे योग में काम नहीं देती। अपना अस्तित्व आप जिस प्रकार बिना किसी प्रमाण के मानते हैं, इसी प्रकार बिना किसी प्रमाण का ख्याल किये सर्व मंगलमय परमात्मा पर पूरा विश्वास रखने का प्रयत्न और अभ्यास करना चाहिए। जो लोग बुद्धि योग में सफलता प्राप्त करना चाहते हैं उनको ऐसी ही तर्क रहित श्रद्धा उत्पन्न करनी चाहिए तभी आपको परमात्मा विषयक सच्चा आनन्द प्राप्त हो सकेगा।

5. चित्त योग👉 चिन्तन करने वाली शक्ति को चित्त कहते हैं। योग-साधना में जो आपका अभीष्ट है उसकी चिन्ता सदैव करते रहिये। अथवा अभ्यास करने के लिए प्रतिमास कोई अच्छा विचार चुन लीजिये। जैसे “मैं आत्मा हूँ और मैं शरीर से भिन्न हूँ।” इसका सदा ध्यान अथवा चिन्तन करने से आपको धीरे-धीरे अपनी आत्मा और शरीर का भिन्नत्व स्पष्ट प्रतीत होने लगेगा। इस प्रकार अच्छे कल्याणकारी विचारों का चिन्तन करने से बुरे विचारों का आना सर्वथा बन्द हो जायगा और आपको अपना जीवन आनन्दपूर्ण जान पड़ने लगेगा।

6. इच्छा योग👉 जिससे मनुष्य किसी बात की प्राप्ति अथवा निवृत्ति की इच्छा करता है उसको इच्छा शक्ति कहते हैं। मनो-विज्ञान की दृष्टि से इच्छा शक्ति का प्रभाव अपार है, जिसके द्वारा सब तरह का महान् कार्य सिद्ध किया जा सकता है। बुराई से बचने का मुख्य साधन इच्छा शक्ति है। आप अपनी प्रबल इच्छाशक्ति द्वारा रोगों के आक्रमण को रोक सकते हैं। मानसिक प्रेरणा देने से बड़ी-बड़ी बीमारियाँ दूर हो सकती हैं। चरित्र सम्बन्धी सब दोषों को भी इच्छा शक्ति द्वारा दूर किया जा सकता है ओर उत्तम आचरण ग्रहण किये जा सकते हैं। यह शक्ति प्रत्येक में होती है, प्रश्न केवल उसे बुराई की तरफ से भलाई की तरफ प्रेरित करने का है।

7. मानस योग👉 मन का धर्म अच्छे और बुरे विचार करना है। मन को एकाग्र करने से उसकी शक्ति बहुत बढ़ सकती है और उसे उन्नति तथा कल्याण के कार्यों में लगाया जा सकता है। इसके लिये अभ्यास द्वारा मन को आज्ञाकारी बनाना चाहिये जिससे वह उन्हीं विचारों में लगे जिनको आप उत्तम समझते हैं।

8. अहंकार-योग👉 अहंकार शब्द का अर्थ ‘घमंड” भी होता है पर यहाँ उस अर्थ से हमारा तात्पर्य नहीं है। यहाँ पर इसका भाव अपनी अन्तरात्मा से है। अहंकार योग का उद्देश्य यह है कि मनुष्य अपने को भौतिक शरीर से भिन्न समझे और आत्मा के अजर, अमर, सर्वव्यापी, सर्वशक्तिशाली आदि गुणों का ध्यान करके उनको ग्रहण करने का प्रयत्न करे। जब मनुष्य के भीतर यह विचार जम जाता है तो वह जिस कार्य का या अनुष्ठान का निश्चय कर लेता है, उसे फिर पूरा करके ही रहता है, क्योंकि उसे यह दृढ़ विश्वास होता है कि मैं शक्तिशाली आत्मा का रूप हूँ जिसके लिए कोई कार्य असंभव नहीं।

9. ज्ञानेन्द्रिय-योग👉 ज्ञानेन्द्रियाँ पाँच मानी गई हैं-आँख, कान, नाक, जीभ, चर्म। इनका सम्बन्ध क्रमशः अग्नि, आकाश, पृथ्वी, जल और वायु के साथ होता है। इनमें योग साधन के लिये सबसे प्रमुख इन्द्री आँख को माना गया है। मन की एकाग्रता प्राप्त करने के लिये आँखों की दृष्टि को किसी एक स्थान या केन्द्र पर जमाना होता है। इससे मन की शक्ति बढ़ जाती है और उसका दूसरों पर विशेष रूप से प्रभाव पड़ने लगता है। इसके द्वारा फिर अन्य इन्द्रियों पर भी कल्याणकारी प्रभाव पड़ने लगता है।

10. कर्मेन्द्रिय-योग👉 कर्मेन्द्रियाँ पाँच हैं👉 वाणी, हाथ, पाँव, गुदा और शिश्न। इनमें सबसे अधिक उपयोग वाणी का ही होता है और वह मानव-जीवन के विकास का सबसे बड़ा साधन है। वाणी द्वारा हम जो शब्द उच्चारण करते हैं उनमें बड़ी शक्ति होती है। योग साधन वाले को वाणी से सदैव उत्तम और हितकारी शब्द ही निकालने चाहिये। इस प्रकार का अभ्यास करने से अंत में आपको वाक्सिद्धि की शक्ति प्राप्त हो सकेगी।
वास्तव में मनुष्य का समस्त जीवन ही एक प्रकार का योग है। मनुष्य के रूप में आकर जीवात्मा, परमात्मा को पहिचान सकता है और उसे प्राप्त कर सकता है। इसलिये हमको अपनी प्रत्येक शक्ति को एक विशेष उद्देश्य और नियम के साथ विकसित करनी चाहिये जिससे वह उन्नत होती चली जाय। अगर मनुष्य इस प्रयत्न में सच्चे मन से बराबर लगा रहेगा तो उसे सब प्रकार की दैवी शक्तियाँ प्राप्त हो जायेंगी और वह परमात्मा के निकट पहुँचता जायगा।
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14 जून 2022

वट सावित्रि पूर्णिमा व्रत 14 जून विशेष ।। Vat Savitri Purnima Vrat 14 June Special

वट सावित्रि पूर्णिमा व्रत 14 जून विशेष
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वट सावित्रि व्रत का महत्व 
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जैसा कि इस व्रत के नाम और कथा से ही ज्ञात होता है कि यह पर्व हर परिस्थिति में अपने जीवनसाथी का साथ देने का संदेश देता है। इससे ज्ञात होता है कि पतिव्रता स्त्री में इतनी ताकत होती है कि वह यमराज से भी अपने पति के प्राण वापस ला सकती है। वहीं सास-ससुर की सेवा और पत्नी धर्म की सीख भी इस पर्व से मिलती है। मान्यता है कि इस दिन सौभाग्यवती स्त्रियां अपने पति की लंबी आयु, स्वास्थ्य और उन्नति और संतान प्राप्ति के लिये यह व्रत रखती हैं।

भारतीय पञ्चाङ्ग अनुसार वट सावित्री पूर्णिमा की पूजा और व्रत इस वर्ष 14 जून मंगलवार को मनाया जाएगा। 

वट सावित्री व्रत समय
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ज्योतिष गणना के अनुसार, इस वर्ष यह पर्व 14 जून दिन मंगलवार को ज्येष्ठा नक्षत्र और साध्य योग में पड़ रहा है, जो ज्योतिषीय गणना के अनुसार उत्तम योग है। ज्येष्ठ पूर्णिमा तिथि का प्रारंभ 13 जून की रात्रि को 09 बजकर 03 मिनट पर हो रहा है, जो 14 जून को सायं 05 बजकर 21 मिनट तक रहेगी।


वट सावित्रि व्रत पूजा विधि 
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सामग्री
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सावित्री-सत्यवान की मूर्ति, 
कच्चा सूत, 
बांस का पंखा, 
लाल कलावा, 
बरगद का फल,
धूप
मिट्टी का दीपक 
घी, 
फल (आम, लीची और अन्य फल)
सत्यवान-सावित्री की मूर्ति,, कपड़े की बनी हुई
बाँस का पंखा
लाल धागा
धूप
मिट्टी का दीपक
घी
फूल
फल( आम, लीची तथा अन्य फल)
कपड़ा – 1.25 मीटर का दो
सिंदूर
इत्र
सुपारी
पान
नारियल
लाल कपड़ा
दूर्वा घास
चावल (अक्षत)
सुहाग का सामान, 
नकद रुपए
पूड़ि‍यां, 
भिगोया हुआ चना, 
स्टील या कांसे की थाली
मिठाई
घर में बना हुआ पकवान
जल से भरा कलश आदि।


पूजा विधि
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वट सावित्रि व्रत में वट यानि बरगद के वृक्ष के साथ-साथ सत्यवान-सावित्रि और यमराज की पूजा की जाती है। माना जाता है कि वटवृक्ष में ब्रह्मा, विष्णु और महेश तीनों देव वास करते हैं। अतः वट वृक्ष के समक्ष बैठकर पूजा करने से सभी मनोकामनाएं पूर्ण होती हैं। वट सावित्री व्रत के दिन सुहागिन स्त्रियों को प्रातःकाल उठकर स्नान करना चाहिये इसके बाद रेत से भरी एक बांस की टोकरी लें और उसमें ब्रहमदेव की मूर्ति के साथ सावित्री की मूर्ति स्थापित करें। इसी प्रकार दूसरी टोकरी में सत्यवान और सावित्री की मूर्तियाँ स्थापित करें दोनों टोकरियों को वट के वृक्ष के नीचे रखे और ब्रहमदेव और सावित्री की मूर्तियों की पूजा करें। तत्पश्चात सत्यवान और सावित्री की मूर्तियों की पूजा करे और वट वृक्ष को जल दे वट-वृक्ष की पूजा हेतु जल, फूल, रोली-मौली, कच्चा सूत, भीगा चना, गुड़ इत्यादि चढ़ाएं और जलाभिषेक करे। 
फिर निम्न श्लोक से सावित्री को अर्घ्य दें

अवैधव्यं च सौभाग्यं देहि त्वं मम सुव्रते।
पुत्रान्‌ पौत्रांश्च सौख्यं च गृहाणार्घ्यं नमोऽस्तु ते॥ 

इसके बाद निम्न श्लोक से वटवृक्ष की प्रार्थना करें
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यथा शाखाप्रशाखाभिर्वृद्धोऽसि त्वं महीतले।
तथा पुत्रैश्च पौत्रैश्च सम्पन्नं कुरु मा सदा॥
पूजा में जल, मौली, रोली, कच्चा सूत, भिगोया हुआ चना, फूल तथा धूप का प्रयोग करें।

जल से वटवृक्ष को सींचकर उसके तने के चारों ओर कच्चा धागा लपेटकर तीन बार अथवा यथा शक्ति 5,11,21,51, या 108 बार परिक्रमा करें।  बड़ के पत्तों के गहने पहनकर वट सावित्री की कथा सुनें। फिर बाँस के पंखे से सत्यवान-सावित्री को हवा करें। बरगद के पत्ते को अपने बालों में लगायें। भीगे हुए चनों का बायना निकालकर, नकद रुपए रखकर सासुजी के चरण-स्पर्श करें। यदि सास वहां न हो तो बायना बनाकर उन तक पहुंचाएं। वट तथा सावित्री की पूजा के पश्चात प्रतिदिन पान, सिन्दूर तथा कुंमकुंम से सौभाग्यवती स्त्री के पूजन का भी विधान है। यही सौभाग्य पिटारी के नाम से जानी जाती है। सौभाग्यवती स्त्रियों का भी पूजन होता है। कुछ महिलाएं केवल अमावस्या को एक दिन का ही व्रत रखती हैं अपनी सामर्थ्य के हिसाब से पूजा समाप्ति पर ब्राह्मणों को वस्त्र तथा फल आदि वस्तुएं बांस के पात्र में रखकर दान करें। घर में आकर पूजा वाले पंखें से अपने पति को हवा करें तथा उनका आशीर्वाद लें। 

अंत में निम्न संकल्प लेकर उपवास रखें।
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मम वैधव्यादिसकलदोषपरिहारार्थं ब्रह्मसावित्रीप्रीत्यर्थं
सत्यवत्सावित्रीप्रीत्यर्थं च वटसावित्रीव्रतमहं करिष्ये।

उसके बाद शाम के वक्त मीठा भोजन करे।

वट सावित्रि व्रत की कथा
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वट सावित्रि व्रत की यह कथा सत्यवान-सावित्रि के नाम से उत्तर भारत में विशेष रूप से प्रचलित हैं। कथा के अनुसार एक समय की बात है कि मद्रदेश में अश्वपति नाम के धर्मात्मा राजा का राज था। उनकी कोई भी संतान नहीं थी। राजा ने संतान हेतु यज्ञ करवाया। कुछ समय बाद उन्हें एक कन्या की प्राप्ति हुई जिसका नाम उन्होंने सावित्री रखा। विवाह योग्य होने पर सावित्री के लिए द्युमत्सेन के पुत्र सत्यवान को पतिरूप में वरण किया। सत्यवान वैसे तो राजा का पुत्र था लेकिन उनका राज-पाट छिन गया था और अब वह बहुत ही द्ररिद्रता का जीवन जी रहे थे। उसके माता-पिता की भी आंखो की रोशनी चली गई थी। सत्यवान जंगल से लकड़ियां काटकर लाता और उन्हें बेचकर जैसे-तैसे अपना गुजारा कर रहा था। जब सावित्रि और सत्यवान के विवाह की बात चली तो नारद मुनि ने सावित्रि के पिता राजा अश्वपति को बताया कि सत्यवान अल्पायु हैं और विवाह के एक वर्ष बाद ही उनकी मृत्यु हो जाएगी। हालांकि राजा अश्वपति सत्यवान की गरीबी को देखकर पहले ही चिंतित थे और सावित्रि को समझाने की कोशिश में लगे थे। नारद की बात ने उन्हें और चिंता में डाल दिया लेकिन सावित्रि ने एक न सुनी और अपने निर्णय पर अडिग रही। अंततः सावित्री और सत्यवान का विवाह हो गया। सावित्री सास-ससुर और पति की सेवा में लगी रही। नारद मुनि ने सत्यवान की मृत्यु का जो दिन बताया था, उसी दिन सावित्री भी सत्यवान के साथ वन को चली गई। वन में सत्यवान लकड़ी काटने के लिए जैसे ही पेड़ पर चढ़ने लगा, उसके सिर में असहनीय पीड़ा होने लगी और वह सावित्री की गोद में सिर रखकर लेट गया। कुछ देर बाद उनके समक्ष अनेक दूतों के साथ स्वयं यमराज खड़े हुए थे। जब यमराज सत्यवान के जीवात्मा को लेकर दक्षिण दिशा की ओर चलने लगे, पतिव्रता सावित्री भी उनके पीछे चलने लगी। आगे जाकर यमराज ने सावित्री से कहा, ‘हे पतिव्रता नारी! जहां तक मनुष्य साथ दे सकता है, तुमने अपने पति का साथ दे दिया। अब तुम लौट जाओ’ इस पर सावित्री ने कहा, ‘जहां तक मेरे पति जाएंगे, वहां तक मुझे जाना चाहिए। यही सनातन सत्य है’ यमराज सावित्री की वाणी सुनकर प्रसन्न हुए और उसे वर मांगने को कहा। सावित्री ने कहा, ‘मेरे सास-ससुर अंधे हैं, उन्हें नेत्र-ज्योति दें’ यमराज ने ‘तथास्तु’ कहकर उसे लौट जाने को कहा और आगे बढ़ने लगे किंतु सावित्री यम के पीछे ही चलती रही यमराज ने प्रसन्न होकर पुन: वर मांगने को कहा। सावित्री ने वर मांगा, ‘मेरे ससुर का खोया हुआ राज्य उन्हें वापस मिल जाए’ यमराज ने ‘तथास्तु’ कहकर पुनः उसे लौट जाने को कहा, परंतु सावित्री अपनी बात पर अटल रही और वापस नहीं गयी। सावित्री की पति भक्ति देखकर यमराज पिघल गए और उन्होंने सावित्री से एक और वर मांगने के लिए कहा तब सावित्री ने वर मांगा, ‘मैं सत्यवान के सौ पुत्रों की मां बनना चाहती हूं। कृपा कर आप मुझे यह वरदान दें’ सावित्री की पति-भक्ति से प्रसन्न हो इस अंतिम वरदान को देते हुए यमराज ने सत्यवान की जीवात्मा को पाश से मुक्त कर दिया और अदृश्य हो गए। सावित्री जब उसी वट वृक्ष के पास आई तो उसने पाया कि वट वृक्ष के नीचे पड़े सत्यवान के मृत शरीर में जीव का संचार हो रहा है। कुछ देर में सत्यवान उठकर बैठ गया। उधर सत्यवान के माता-पिता की आंखें भी ठीक हो गईं और उनका खोया हुआ राज्य भी वापस मिल गया।
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English Translation :-

Vat Savitri Purnima Vrat 14 June Special

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 Importance of Vat Savitri Vrat

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 As it is known from the name and story of this fast that this festival gives the message of supporting one's life partner in every situation.  It is known from this that a virtuous woman has so much power that she can bring back her husband's life even from Yamraj.  At the same time, the service of mother-in-law and wife's religion is also learned from this festival.  It is believed that on this day, fortunate women keep this fast for their husband's long life, health and progress and for getting children.


 According to the Indian Panchang, the worship and fasting of Vat Savitri Purnima will be celebrated on Tuesday, June 14 this year.


 Vat Savitri Vrat Timings

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 According to astrological calculations, this year this festival is falling in Jyestha Nakshatra and Sadhya Yoga on Tuesday, June 14, which is the best yoga according to astrological calculations.  Jyeshtha Purnima Tithi is starting on the night of 13th June at 09:03 pm, which will continue till 05.21 pm on 14th June.


 Vat Savitri Vrat Puja Method

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 material

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 Statue of Savitri-Satyavan,

 raw yarn,

 bamboo fan,

 red kalava,

 banyan fruit,

 sunshine

 kerosene lamp

 Ghee,

 Fruits (mango, litchi and other fruits)

 Statue of Satyavan-Savitri, made of cloth

 bamboo fan

 red thread

 sunshine

 kerosene lamp

 Ghee

 Flower

 Fruits (mango, litchi and other fruits)

 Fabric – Two of 1.25 meters

 Vermilion

 Perfume

 Betel

 paan

 Coconut

 red cloth

 durva grass

 Rice (Akshat)

 sweets goods,

 cash rupees

 puris,

 soaked chickpeas,

 steel or bronze plate

 Sweet

 home cooked dish

 Kalash full of water etc.

worship method

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 Satyavan-Savitri and Yamraj are worshiped along with Vat i.e. banyan tree in Vat Savitri Vrat.  It is believed that all the three gods, Brahma, Vishnu and Mahesh reside in the banyan tree.  Therefore, by worshiping sitting in front of the banyan tree, all the wishes are fulfilled.  On the day of Vat Savitri fast, married women should wake up early in the morning and take a bath, after that take a bamboo basket filled with sand and install the idol of Savitri along with the idol of Brahmadev in it.  Similarly, install the idols of Satyavan and Savitri in the second basket, keep both the baskets under the tree of Vat and worship the idols of Brahmadev and Savitri.  After that worship the idols of Satyavan and Savitri and offer water to the banyan tree, offer water, flowers, roli-mouli, raw cotton, soaked gram, jaggery etc. to the banyan tree and perform Jalabhishek.

 Then offer Arghya to Savitri from the following verse


 Illegalvyancha saubhagyambh dehi tvam mam suvrate.

 Putran grandson saukhyam cha grhanarghyam namostu te॥


 After this, pray to the banyan tree with the following verse

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 In the end, keep fast with the following resolution.

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Mam Vaidyavyadiskaldoshparihararth

 Satyavatsavitripreetyartham cha vatasavitrivrataham karishye.


 After that eat sweet food in the evening.


 Story of Vat Savitri Vrat

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This story of Vat Savitri fast is especially popular in North India under the name of Satyavan-Savitri.  According to the legend, once upon a time, there was the rule of a godly king named Ashwapati in Madras.  He didn't have any children.  The king performed a yajna for the sake of the child.  After some time he got a daughter whom he named Savitri.  On being eligible for marriage, Savitri chose Satyavan, the son of Dyumtsen, as her husband.  Although Satyavan was the son of the king, but his kingdom was snatched away and now he was living a life of very poor.  His parents had also lost their sight.  Satyavan was making a living by cutting wood from the forest and selling them.  When there was talk of Savitri and Satyavan's marriage, Narada Muni told Savitri's father King Ashwapati that Satyavan was short-lived and would die after a year of marriage.  However, King Ashwapati was already worried seeing Satyavan's poverty and tried to convince Savitri.  Narada's words made him more worried but Savitri did not listen and stood firm on his decision.  Eventually Savitri and Satyavan got married.  Savitri was engaged in the service of mother-in-law and husband.  On the day that Narada Muni had told Satyavan's death, on the same day Savitri also went to the forest with Satyavan.  As soon as Satyavan started climbing the tree to cut wood, his head started experiencing unbearable pain and he lay down with his head on Savitri's lap.  After some time Yamraj himself stood before him along with many messengers.  When Yamraj started walking towards the south with Satyavan's soul, the virtuous Savitri also started following him.  Going ahead, Yamraj said to Savitri, 'O virtuous woman!  As far as man can support, you have supported your husband.  Now you go back' To this Savitri said, 'As far as my husband will go, I should go.  This is the eternal truth. Savitri said, 'My father-in-law is blind, give them eye-light'.  Told.  Savitri asked for a boon, 'May he get back the lost kingdom of my father-in-law,' Yamraj asked him to return again by saying 'Tathastu', but Savitri remained firm on her point and did not go back.  Seeing Savitri's husband's devotion, Yamraj melted and asked Savitri to ask for another boon, then Savitri asked for the boon, 'I want to become the mother of hundred sons of Satyavan.  Please give me this boon.'  When Savitri came near the same banyan tree, she found that the soul was being transmitted in the dead body of Satyavan lying under the banyan tree.  After sometime Satyavan got up and sat down.  On the other hand, the eyes of Satyavan's parents also got cured and their lost kingdom was also recovered.


Regards 
Acharya Mordhwaj Sharma 
Shri Kashi Vishwanath Jyotirling Temple Varanasi Uttar Pradesh 
9648023364
9129998000

12 जून 2022

रवि प्रदोष व्रत परिचय एवं प्रदोष व्रत विस्तृत विधि।। Ravi Pradosh Vrat Introduction and Pradosh Vrat Detailed Method ।।


रवि प्रदोष व्रत परिचय एवं प्रदोष व्रत विस्तृत विधि
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प्रत्येक चन्द्र मास की त्रयोदशी तिथि के दिन प्रदोष व्रत रखने का विधान है. यह व्रत कृष्ण पक्ष और शुक्ल पक्ष दोनों को किया जाता है. सूर्यास्त के बाद के 2 घण्टे 24 मिनट का समय प्रदोष काल के नाम से जाना जाता है. प्रदेशों के अनुसार यह बदलता रहता है. सामान्यत: सूर्यास्त से लेकर रात्रि आरम्भ तक के मध्य की अवधि को प्रदोष काल में लिया जा सकता है।


ऐसा माना जाता है कि प्रदोष काल में भगवान भोलेनाथ कैलाश पर्वत पर प्रसन्न मुद्रा में नृ्त्य करते है. जिन जनों को भगवान श्री भोलेनाथ पर अटूट श्रद्धा विश्वास हो, उन जनों को त्रयोदशी तिथि में पडने वाले प्रदोष व्रत का नियम पूर्वक पालन कर उपवास करना चाहिए।

यह व्रत उपवासक को धर्म, मोक्ष से जोडने वाला और अर्थ, काम के बंधनों से मुक्त करने वाला होता है. इस व्रत में भगवान शिव की पूजन किया जाता है. भगवान शिव कि जो आराधना करने वाले व्यक्तियों की गरीबी, मृ्त्यु, दु:ख और ऋणों से मुक्ति मिलती है।

प्रदोष व्रत की महत्ता
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शास्त्रों के अनुसार प्रदोष व्रत को रखने से दौ गायों को दान देने के समान पुन्य फल प्राप्त होता है. प्रदोष व्रत को लेकर एक पौराणिक तथ्य सामने आता है कि " एक दिन जब चारों और अधर्म की स्थिति होगी, अन्याय और अनाचार का एकाधिकार होगा, मनुष्य में स्वार्थ भाव अधिक होगी. तथा व्यक्ति सत्कर्म करने के स्थान पर नीच कार्यो को अधिक करेगा।


उस समय में जो व्यक्ति त्रयोदशी का व्रत रख, शिव आराधना करेगा, उस पर शिव कृ्पा होगी. इस व्रत को रखने वाला व्यक्ति जन्म- जन्मान्तर के फेरों से निकल कर मोक्ष मार्ग पर आगे बढता है. उसे उतम लोक की प्राप्ति होती है।

व्रत से मिलने वाले फल
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अलग- अलग वारों के अनुसार प्रदोष व्रत के लाभ प्राप्त होते है।

जैसे👉  सोमवार के दिन त्रयोदशी पडने पर किया जाने वाला वर्त आरोग्य प्रदान करता है। सोमवार के दिन जब त्रयोदशी आने पर जब प्रदोष व्रत किया जाने पर, उपवास से संबन्धित मनोइच्छा की पूर्ति होती है। जिस मास में मंगलवार के दिन त्रयोदशी का प्रदोष व्रत हो, उस दिन के व्रत को करने से रोगों से मुक्ति व स्वास्थय लाभ प्राप्त होता है एवं बुधवार के दिन प्रदोष व्रत हो तो, उपवासक की सभी कामना की पूर्ति होने की संभावना बनती है।

गुरु प्रदोष व्रत शत्रुओं के विनाश के लिये किया जाता है। शुक्रवार के दिन होने वाल प्रदोष व्रत सौभाग्य और दाम्पत्य जीवन की सुख-शान्ति के लिये किया जाता है। अंत में जिन जनों को संतान प्राप्ति की कामना हो, उन्हें शनिवार के दिन पडने वाला प्रदोष व्रत करना चाहिए। अपने उद्देश्यों को ध्यान में रखते हुए जब प्रदोष व्रत किये जाते है, तो व्रत से मिलने वाले फलों में वृ्द्धि होती है।

व्रत विधि
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सुबह स्नान के बाद भगवान शिव, पार्वती और नंदी को पंचामृत और जल से स्नान कराएं। फिर गंगाजल से स्नान कराकर बेल पत्र, गंध, अक्षत (चावल), फूल, धूप, दीप, नैवेद्य (भोग), फल, पान, सुपारी, लौंग और इलायची चढ़ाएं। फिर शाम के समय भी स्नान करके इसी प्रकार से भगवान शिव की पूजा करें। फिर सभी चीजों को एक बार शिव को चढ़ाएं।और इसके बाद भगवान शिव की सोलह सामग्री से पूजन करें। बाद में भगवान शिव को घी और शक्कर मिले जौ के सत्तू का भोग लगाएं। इसके बाद आठ दीपक आठ दिशाओं में जलाएं। जितनी बार आप जिस भी दिशा में दीपक रखेंगे, दीपक रखते समय प्रणाम जरूर करें। अंत में शिव की आरती करें और साथ ही शिव स्त्रोत, मंत्र जाप करें। रात में जागरण करें।

प्रदोष व्रत समापन पर उद्धापन 
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इस व्रत को ग्यारह या फिर 26 त्रयोदशियों तक रखने के बाद व्रत का समापन करना चाहिए. इसे उद्धापन के नाम से भी जाना जाता है।

उद्धापन करने की विधि 
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इस व्रत को ग्यारह या फिर 26 त्रयोदशियों तक रखने के बाद व्रत का समापन करना चाहिए. इसे उद्धापन के नाम से भी जाना जाता है।

इस व्रत का उद्धापन करने के लिये त्रयोदशी तिथि का चयन किया जाता है. उद्धापन से एक दिन पूर्व श्री गणेश का पूजन किया जाता है. पूर्व रात्रि में कीर्तन करते हुए जागरण किया जाता है. प्रात: जल्द उठकर मंडप बनाकर, मंडप को वस्त्रों या पद्म पुष्पों से सजाकर तैयार किया जाता है. "ऊँ उमा सहित शिवाय नम:" मंत्र का एक माला अर्थात 108 बार जाप करते हुए, हवन किया जाता है. हवन में आहूति के लिये खीर का प्रयोग किया जाता है।

हवन समाप्त होने के बाद भगवान भोलेनाथ की आरती की जाती है। और शान्ति पाठ किया जाता है. अंत: में दो ब्रह्माणों को भोजन कराया जाता है. तथा अपने सामर्थ्य अनुसार दान दक्षिणा देकर आशिर्वाद प्राप्त किया जाता है।

रवि त्रयोदशी प्रदोष व्रत
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॥ दोहा ॥
आयु, बुद्धि, आरोग्यता, या चाहो सन्तान ।
शिव पूजन विधवत् करो, दुःख हरे भगवान ॥

किसी समय सभी प्राणियों के हितार्थ परम् पुनीत गंगा के तट पर ऋषि समाज द्वारा एक विशाल सभा का आयोजन किया गया, जिसमें व्यास जी के परम् प्रिय शिष्य पुराणवेत्ता सूत जी महाराज हरि कीर्तन करते हुए पधारे। शौनकादि अट्ठासी हजार ऋषि-मुनिगण ने सूत जी को दण्डवत् प्रणाम किया। सूत जी ने भक्ति भाव से ऋषिगण को आशीर्वाद दे अपना स्थान ग्रहण किया।ऋषिगण ने विनीत भाव से पूछा, “हे परम् दयालु! कलियुग में शंकर भगवान की भक्ति किस आराधना द्वारा उपलब्ध होगी? कलिकाल में जब मनुष्य पाप कर्म में लिप्त हो, वेद-शास्त्र से विमुख रहेंगे । दीनजन अनेक कष्टों से त्रस्त रहेंगे । हे मुनिश्रेष्ठ! कलिकाल में सत्कर्मं में किसी की रुचि न होगी, पुण्य क्षीण हो जाएंगे एवं मनुष्य स्वतः ही असत् कर्मों की ओर प्रेरित होगा । इस पृथ्वी पर तब ज्ञानी मनुष्य का यह कर्तव्य हो जाएगा कि वह पथ से विचलित मनुष्य का मार्गदर्शन करे, अतः हे महामुने! ऐसा कौन-सा उत्तम व्रत है जिसे करने से मनवांछित फल की प्राप्ति हो और कलिकाल के पाप शान्त हो जाएं?”सूत जी बोले- “हे शौनकादि ऋषिगण! आप धन्यवाद के पात्र हैं । आपके विचार प्रशंसनीय व जनकल्याणकारी हैं । आपके ह्रदय में सदा परहित की भावना रहती है, आप धन्य हैं । हे शौनकादि ऋषिगण! मैं उस व्रत का वर्णन करने जा रहा हूं जिसे करने से सब पाप और कष्ट नष्ट हो जाते हैं तथा जो धन वृद्धिकारक, सुख प्रदायक, सन्तान व मनवांछित फल प्रदान करने वाला है । इसे भगवान शंकर ने सती जी को सुनाया था।”सूत जी आगे बोले- “आयु वृद्धि व स्वास्थ्य लाभ हेतु रवि त्रयोदशी प्रदोष का व्रत करें । इसमें प्रातः स्नान कर निराहार रहकर शिव जी का मनन करें ।मन्दिर जाकर शिव आराधना करें । माथे पर त्रिपुण धारण कर बेल, धूप, दीप, अक्षत व ऋतु फल अर्पित करें । रुद्राक्ष की माला से सामर्थ्यानुसार, ॐ नमः शिवाय’ जपे । ब्राह्मण को भोजन कराएं और दान-दक्षिणा दें, तत्पश्‍चात मौन व्रत धारण करें । संभव हो तो यज्ञ-हवन कराएं ।‘ॐ ह्रीं क्लीं नमः शिवाय स्वाहा’ मंत्र से यज्ञ-स्तुति दें । इससे अभीष्ट फल की प्राप्ति होती है । प्रदोष व्रत में व्रती एक बार भोजन करे और पृथ्वी पर शयन करे । इससे सर्व कार्य सिद्ध होते हैं । श्रावण मास में इस व्रत का विशेष महत्व है । सभी मनोरथ इस व्रत को करने से पूर्ण होते है । हे ऋषिगण! यह प्रदोष व्रत जिसका वृत्तांत मैंने सुनाया, किसी समय शंकर भगवान ने सती जी को और वेदव्यास मुनि ने मुझे सुनाया था ।”शौनकादि ऋषि बोले – “हे पूज्यवर! यह व्रत परम् गोपनीय, मंगलदायक और कष्ट हरता कहा गया है । कृपया बताएं कि यह व्रत किसने किया और उसे इससे क्या फल प्राप्त हुआ?”

तब श्री सुत जी कथा सुनाने लगे-

व्रत कथा
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“एक ग्राम में एक दीन-हीन ब्राह्मण रहता था । उसकी धर्मनिष्ठ पत्‍नी प्रदोष व्रत करती थी । उनके एक पुत्र था । एक बार वह पुत्र गंगा स्नान को गया । दुर्भाग्यवश मार्ग में उसे चोरों ने घेर लिया और डराकर उससे पूछने लगे कि उसके पिता का गुप्त धन कहां रखा है । बालक ने दीनतापूर्वक बताया कि वे अत्यन्त निर्धन और दुःखी हैं । उनके पास गुप्त धन कहां से आया । चोरों ने उसकी हालत पर तरस खाकर उसे छोड़ दिया । बालक अपनी राह हो लिया । चलते-चलते वह थककर चूर हो गया और बरगद के एक वृक्ष के नीचे सो गया । तभी उस नगर के सिपाही चोरों को खोजते हुए उसी ओर आ निकले । उन्होंने ब्राह्मण-बालक को चोर समझकर बन्दी बना लिया और राजा के सामने उपस्थित किया । राजा ने उसकी बात सुने बगैर उसे कारावार में डलवा दिया । उधर बालक की माता प्रदोष व्रत कर रही थी । उसी रात्रि राजा को स्वप्न आया कि वह बालक निर्दोष है । यदि उसे नहीं छोड़ा गया तो तुम्हारा राज्य और वैभव नष्ट हो जाएगा । सुबह जागते ही राजा ने बालक को बुलवाया । बालक ने राजा को सच्चाई बताई । राजा ने उसके माता-पिता को दरबार में बुलवाया । उन्हें भयभीत देख राजा ने मुस्कुराते हुए कहा- ‘तुम्हारा बालक निर्दोष और निडर है । तुम्हारी दरिद्रता के कारण हम तुम्हें पांच गांव दान में देते हैं ।’ इस तरह ब्राह्मण आनन्द से रहने लगा । शिव जी की दया से उसकी दरिद्रता दूर हो गई।”

उक्त कथा सुनने के बाद शौनकादि ऋषि बोले- “हे दयालु! कृपया अब आप सोम त्रयोदशी प्रदोष व्रत के बारे में बताइए।”

प्रदोषस्तोत्रम् 
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।। श्री गणेशाय नमः।। 

जय देव जगन्नाथ जय शङ्कर शाश्वत । जय सर्वसुराध्यक्ष जय सर्वसुरार्चित ॥ १॥ 

जय सर्वगुणातीत जय सर्ववरप्रद । 
जय नित्य निराधार जय विश्वम्भराव्यय ॥ २॥ 

जय विश्वैकवन्द्येश जय नागेन्द्रभूषण । 
जय गौरीपते शम्भो जय चन्द्रार्धशेखर ॥ ३॥ 

जय कोट्यर्कसङ्काश जयानन्तगुणाश्रय । जय भद्र विरूपाक्ष जयाचिन्त्य निरञ्जन ॥ ४॥ 

जय नाथ कृपासिन्धो जय भक्तार्तिभञ्जन । जय दुस्तरसंसारसागरोत्तारण प्रभो ॥ ५॥ 

प्रसीद मे महादेव संसारार्तस्य खिद्यतः । सर्वपापक्षयं कृत्वा रक्ष मां परमेश्वर ॥ ६॥ 

महादारिद्र्यमग्नस्य महापापहतस्य च । महाशोकनिविष्टस्य महारोगातुरस्य च ॥ ७॥ 

ऋणभारपरीतस्य दह्यमानस्य कर्मभिः । ग्रहैः प्रपीड्यमानस्य प्रसीद मम शङ्कर ॥ ८॥ 

दरिद्रः प्रार्थयेद्देवं प्रदोषे गिरिजापतिम् । अर्थाढ्यो वाऽथ राजा वा प्रार्थयेद्देवमीश्वरम् ॥ ९॥ 

दीर्घमायुः सदारोग्यं कोशवृद्धिर्बलोन्नतिः । 
ममास्तु नित्यमानन्दः प्रसादात्तव शङ्कर ॥ १०॥ 

शत्रवः संक्षयं यान्तु प्रसीदन्तु मम प्रजाः । नश्यन्तु दस्यवो राष्ट्रे जनाः सन्तु निरापदः ॥ ११॥ 

दुर्भिक्षमरिसन्तापाः शमं यान्तु महीतले । सर्वसस्यसमृद्धिश्च भूयात्सुखमया दिशः ॥ १२॥ 

एवमाराधयेद्देवं पूजान्ते गिरिजापतिम् । ब्राह्मणान्भोजयेत् पश्चाद्दक्षिणाभिश्च पूजयेत् ॥ १३॥ 

सर्वपापक्षयकरी सर्वरोगनिवारणी । शिवपूजा मयाऽऽख्याता सर्वाभीष्टफलप्रदा ॥ १४॥ 

॥ इति प्रदोषस्तोत्रं सम्पूर्णम् ॥
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कथा एवं स्तोत्र पाठ के बाद महादेव जी की आरती करें

ताम्बूल, दक्षिणा, जल -आरती 
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 तांबुल का मतलब पान है। यह महत्वपूर्ण पूजन सामग्री है। फल के बाद तांबुल समर्पित किया जाता है। ताम्बूल के साथ में पुंगी फल (सुपारी), लौंग और इलायची भी डाली जाती है । दक्षिणा अर्थात् द्रव्य समर्पित किया जाता है। भगवान भाव के भूखे हैं। अत: उन्हें द्रव्य से कोई लेना-देना नहीं है। द्रव्य के रूप में रुपए, स्वर्ण, चांदी कुछ भी अर्पित किया जा सकता है।

आरती पूजा के अंत में धूप, दीप, कपूर से की जाती है। इसके बिना पूजा अधूरी मानी जाती है। आरती में एक, तीन, पांच, सात यानि विषम बत्तियों वाला दीपक प्रयोग किया जाता है।

भगवान शिव जी की आरती
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ॐ जय शिव ओंकारा,भोले हर शिव ओंकारा।
ब्रह्मा विष्णु सदा शिव अर्द्धांगी धारा ॥ ॐ हर हर हर महादेव...॥

एकानन चतुरानन पंचानन राजे।
हंसानन गरुड़ासन वृषवाहन साजे ॥ ॐ हर हर हर महादेव..॥

दो भुज चार चतुर्भुज दस भुज अति सोहे।
तीनों रूपनिरखता त्रिभुवन जन मोहे ॥ ॐ हर हर हर महादेव..॥

अक्षमाला बनमाला मुण्डमाला धारी।
चंदन मृगमद सोहै भोले शशिधारी ॥ ॐ हर हर हर महादेव..॥

श्वेताम्बर पीताम्बर बाघम्बर अंगे।
सनकादिक गरुणादिक भूतादिक संगे ॥ ॐ हर हर हर महादेव..॥

कर के मध्य कमंडलु चक्र त्रिशूल धर्ता।
जगकर्ता जगभर्ता जगपालन करता ॥ ॐ हर हर हर महादेव..॥

ब्रह्मा विष्णु सदाशिव जानत अविवेका।
प्रणवाक्षर के मध्ये ये तीनों एका ॥ ॐ हर हर हर महादेव..॥

काशी में विश्वनाथ विराजत नन्दी ब्रह्मचारी।
नित उठि दर्शन पावत रुचि रुचि भोग लगावत महिमा अति भारी ॥ ॐ हर हर हर महादेव..॥

लक्ष्मी व सावित्री, पार्वती संगा ।
पार्वती अर्धांगनी, शिवलहरी गंगा ।। ॐ हर हर हर महादेव..।।

पर्वत सौहे पार्वती, शंकर कैलासा।
भांग धतूर का भोजन, भस्मी में वासा ।। ॐ हर हर हर महादेव..।।

जटा में गंगा बहत है, गल मुंडल माला।
शेष नाग लिपटावत, ओढ़त मृगछाला ।। ॐ हर हर हर महादेव..।।

त्रिगुण शिवजीकी आरती जो कोई नर गावे।
कहत शिवानन्द स्वामी मनवांछित फल पावे ॥ ॐ हर हर हर महादेव..॥

ॐ जय शिव ओंकारा भोले हर शिव ओंकारा
ब्रह्मा विष्णु सदाशिव अर्द्धांगी धारा ।। ॐ हर हर हर महादेव।।

कर्पूर आरती
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कर्पूरगौरं करुणावतारं, संसारसारम् भुजगेन्द्रहारम्।
सदावसन्तं हृदयारविन्दे, भवं भवानीसहितं नमामि॥

मंगलम भगवान शंभू
मंगलम रिषीबध्वजा ।
मंगलम पार्वती नाथो
मंगलाय तनो हर ।।

मंत्र पुष्पांजलि 
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मंत्र पुष्पांजली मंत्रों द्वारा हाथों में फूल लेकर भगवान को पुष्प समर्पित किए जाते हैं तथा प्रार्थना की जाती है। भाव यह है कि इन पुष्पों की सुगंध की तरह हमारा यश सब दूर फैले तथा हम प्रसन्नता पूर्वक जीवन बीताएं।

ॐ यज्ञेन यज्ञमयजंत देवास्तानि धर्माणि प्रथमान्यासन्।

ते हं नाकं महिमान: सचंत यत्र पूर्वे साध्या: संति देवा:

ॐ राजाधिराजाय प्रसह्ये साहिने नमो वयं वैश्रवणाय कुर्महे स मे कामान्कामकामाय मह्यम् कामेश्वरो वैश्रवणो ददातु।
कुबेराय वैश्रवणाय महाराजाय नम:

ॐ स्वस्ति साम्राज्यं भौज्यं स्वाराज्यं वैराज्यं
पारमेष्ठ्यं राज्यं माहाराज्यमाधिपत्यमयं समंतपर्यायी सार्वायुष आंतादापरार्धात्पृथिव्यै समुद्रपर्यंता या एकराळिति तदप्येष श्लोकोऽभिगीतो मरुत: परिवेष्टारो मरुत्तस्यावसन्गृहे आविक्षितस्य कामप्रेर्विश्वेदेवा: सभासद इति।

ॐ विश्व दकचक्षुरुत विश्वतो मुखो विश्वतोबाहुरुत विश्वतस्पात संबाहू ध्यानधव धिसम्भत त्रैत्याव भूमी जनयंदेव एकः।
ॐ तत्पुरुषाय विद्महे महादेवाय धीमहि
तन्नो रुद्रः प्रचोदयात्॥

नाना सुगंध पुष्पांनी यथापादो भवानीच
पुष्पांजलीर्मयादत्तो रुहाण परमेश्वर
ॐ भूर्भुव: स्व: भगवते श्री सांबसदाशिवाय नमः। मंत्र पुष्पांजली समर्पयामि।।

प्रदक्षिणा
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नमस्कार, स्तुति -प्रदक्षिणा का अर्थ है परिक्रमा। आरती के उपरांत भगवन की परिक्रमा की जाती है, परिक्रमा हमेशा क्लॉक वाइज (clock-wise) करनी चाहिए। स्तुति में क्षमा प्रार्थना करते हैं, क्षमा मांगने का आशय है कि हमसे कुछ भूल, गलती हो गई हो तो आप हमारे अपराध को क्षमा करें।
 
यानि कानि च पापानि जन्मांतर कृतानि च। तानि सवार्णि नश्यन्तु प्रदक्षिणे पदे-पदे।।

अर्थ: जाने अनजाने में किए गए और पूर्वजन्मों के भी सारे पाप प्रदक्षिणा के साथ-साथ नष्ट हो जाए।
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English Translation :-

Ravi Pradosh Vrat Introduction and Pradosh Vrat Detailed Method

There is a law to observe Pradosh fast on Trayodashi Tithi of every lunar month. This fast is done on both Krishna Paksha and Shukla Paksha. The time of 2 hours 24 minutes after sunset is known as Pradosh Kaal. It varies according to the states. Generally, the period from sunset to the beginning of the night can be taken as Pradosh Kaal.

It is believed that Lord Bholenath dances in a happy posture on Mount Kailash during Pradosh period. Those people who have unwavering faith in Lord Shri Bholenath, those people should fast by following the rules of Pradosh fast falling on Trayodashi Tithi.

This fast is supposed to connect the fasting person to Dharma, Moksha and to free him from the shackles of Artha, Kama. Lord Shiva is worshiped in this fast. Those who worship Lord Shiva get freedom from poverty, death, sorrow and debts.

Importance of Pradosh Vrat
According to the scriptures, keeping Pradosh fast gives the same reward as donating two cows. A mythological fact comes to the fore regarding Pradosh Vrat that "One day when there will be a state of unrighteousness, injustice and incest will prevail, selfishness will be high in man. And instead of doing good deeds, the person will do more lowly deeds.

During that time, the person who observes Trayodashi fast and worships Shiva, will have the blessings of Shiva. The person who observes this fast, after getting out of the cycle of birth after birth, proceeds on the path of salvation. He attains the highest level.

fruits of fasting
The benefits of Pradosh fasting are obtained according to different times.

For example, the Varta performed when Trayodashi falls on Monday provides health. When Pradosh Vrat is observed on Monday, when Trayodashi arrives, the desires related to fasting are fulfilled. In the month in which Pradosh Vrat is observed for Trayodashi on Tuesday, the fasting of that day gives relief from diseases and health benefits and if Pradosh Vrat is observed on Wednesday, then all the wishes of the faster are likely to be fulfilled.

Guru Pradosh fast is observed for the destruction of enemies. Pradosh fast on Friday is observed for good luck and happiness and peace in married life. In the end, those who wish to have a child, they should observe Pradosh fast which falls on Saturday. When Pradosh Vrat is observed keeping in view its objectives, then the fruits obtained from the fast increase.

fasting method
In the morning after bath, bathe Lord Shiva, Parvati and Nandi with Panchamrit and water. After bathing with Ganges water, offer Bel leaves, Gandha, Akshat (rice), flowers, incense, lamp, Naivedya (Bhog), fruits, betel leaves, betel nuts, cloves and cardamom. Then take a bath in the evening and worship Lord Shiva in the same way. Then offer all the things to Shiva once. And after that worship Lord Shiva with sixteen ingredients. Afterwards, offer barley sattu mixed with ghee and sugar to Lord Shiva. After this, light eight lamps in eight directions. As many times in whichever direction you place the lamp, do salute while keeping the lamp. In the end, do the aarti of Shiva as well as chant the Shiva stotra, mantra. Wake up at night.

Uddhapan at the end of Pradosh fast
After keeping this fast for eleven or 26 Trayodashis, the fast should be ended. It is also known as Uddhapan.

method of production
After keeping this fast for eleven or 26 Trayodashis, the fast should be ended. It is also known as Uddhapan.

Trayodashi date is selected for the commencement of this fast. One day before Uddhapan, Shri Ganesh is worshipped. Jagran is done by chanting Kirtan in the previous night. Waking up early in the morning, making a mandap, the mandap is prepared by decorating it with clothes or Padma flowers. A rosary of the mantra "Om Uma including Shivaay Namah" i.e. 108 times, the Havan is performed. Kheer is used for offering in Havan.

After the completion of the havan, the aarti of Lord Bholenath is performed. And peace is recited. In the end, two brahmins are fed food. And blessings are obtained by giving charity according to one's ability.

Ravi Trayodashi Pradosh Vrat
, couplet
Age, intelligence, health, or children.
Do worship of Shiva properly, sorrow Hare God.

Once upon a time, a huge gathering was organized by the Rishi Samaj on the banks of the holy Ganges for the benefit of all beings, in which Vyas ji's most beloved disciple, Puranveta Soot ji Maharaj, came while performing Hari Kirtan. Shaunkadi Eighty-eight thousand sages and sages bowed down to Sut ji. Soot ji blessed the sages with devotion and took his place. The sages asked politely, “O Most Merciful! By which worship will the devotion of Lord Shankar be attained in Kali Yuga? In Kalikal, when a person is involved in sinful deeds, he will remain away from the Vedas and Shastras. Deenjan will be stricken with many troubles. O best! In Kalikal, no one will be interested in good deeds, virtues will be eroded and man will automatically be motivated towards wrong deeds. Then on this earth it will be the duty of the wise man to guide the man who deviates from the path, so O great man! Which is the best fast by which one can get the desired result and the sins of Kalikal get pacified?” Soot ji said – “O Shaunkadi sages! You deserve thanks. Your thoughts are appreciable and beneficial. There is always a feeling of benevolence in your heart, you are blessed. O Shaunakadi sages! I am going to describe that fast, by observing which all sins and sufferings are destroyed and which increases wealth, gives happiness, gives children and desired results. This was narrated by Lord Shankar to Sati ji." Sut ji further said - "Pradosh fast on Ravi Trayodashi for age growth and health benefits. Take a bath in it in the morning and meditate on Shiva by staying fast. Go to the temple and worship Shiva. Offer vine, incense, lamp, akshat and season fruits by wearing a tripun on the forehead. Chant Om Namah Shivay with a Rudraksha rosary as per the capacity. Offer food to the brahmin and give charity and dakshina, after that observe a fast of silence. If possible, get Yagya-havan done. Offer yagya-praise with the mantra 'Om Hreem Kleem Namah Shivay Swaha'. This gives the desired result. During Pradosh fast, the fasting should eat once and sleep on the earth. By this all works are proved. This fast has special significance in the month of Shravan. All the desires are fulfilled by observing this fast. O sages! This Pradosh Vrat, the story of which I narrated, was once narrated by Lord Shankar to Sati and by Vedavyasa Muni to me.” Shaunkadi Rishi said – “O Pujyavar! This fast is said to be extremely secretive, auspicious and remover of pain. Please tell who did this fast and what result did he get from it?"

Then Shri Sut ji started narrating the story-

fasting story
“A poor Brahmin lived in a village. His pious wife used to observe Pradosh fast. He had a son. Once that son went to bathe in the Ganges. Unfortunately, on the way he was surrounded by thieves and frightened and asked him where his father's secret money was kept. The boy humbly told that he was very poor and sad. Where did he get the secret money from? The thieves took pity on his condition and left him. The boy went on his way. While walking, he got tired and fell asleep under a banyan tree. Then the soldiers of that city came out looking for the thieves. He took the Brahmin-child as a thief and made him a prisoner and presented it in front of the king. Without listening to him, the king got him imprisoned. On the other hand the mother of the child was observing Pradosh fast. The same night the king had a dream that the child was innocent. If it is not released your kingdom and glory will be destroyed. As soon as he woke up in the morning, the king called the boy. The boy told the truth to the king. The king invited his parents to the court. Seeing them frightened, the king smiled and said- 'Your child is innocent and fearless. Because of your poverty, we give you five villages in charity.' Thus the Brahmin started living happily. His poverty was removed by the mercy of Shiva.

After listening to the said story, Shaunkadi Rishi said - "O merciful one! Please now tell me about the Som Trayodashi Pradosh fast."

Pradoshstottram
, Om Shree Ganeshaya Namaha..

Jai Dev Jagannath Jai Shankar Eternal. Jay Sarvsuradhyaksha Jay Sarvsurarchit 1॥

Jai sarvagunateet jai sarvavarprad.
Jai nitya baseless jai Vishwambharavaya 2

Jay Vishwavaikvandyesh Jay Nagendra Bhushan.
Jai Gauripete Shambho Jai Chandradhashekhar 3

Jai kotyarkasakash jayanantgunashraya. Jai Bhadra Virupaksha Jayachintya Niranjan. 4

Jai Nath Kripasindho Jai Bhaktartibhanjan. Jai dustarsansarsagarotaran prabho 5

Mahadev sansaratsya khidyah in Prasidh. Sarvapaapakshayam Kritva Rakshak Mother Parmeshwar 6

Mahadaridryamagnasya mahapapahatsya c. Mahashoknavishtasya Maharogatursya f 7

Debabharparitasya dahyamanasya karmabhih. Grahaiah Prapidyamanasya Prasid Mama Shankar. 8

Poor: Prathayeddevam Pradoshe Girijapatim. Arthadhyo Vaath Raja or Prathyeddevmishwaram. 9॥

Long life: good health.
Mamastu Nityamandah Prasadattva Shankar. 10

Shatravah sankshayam yantu prasidanthu mama prajah. Nasyantu Dasyavo Rashtra Janaah Santu Nirapadah. 11

Durbhikshamarisantapa: Shama yantu Mahitale. Sarvasyasamridhischa Bhuyatsukhamaya Dishah 12

Evamaradhayeddevam pujaante girijapatim. brahmananbhojayet pachhaddakshinabhischa pujayet. 13

Sarvapaakshaykari omnipresence. Shiv Puja Mayakhyata Sarvabhishtafalprada. 14॥

, Iti Pradoshastotra Sampoornam
After the story and palm 
worship mahadev ji

Tambul, Dakshina, Jal-arati
 Tambul means paan. It is an important worship material. Tambul is offered after the fruit. Pungi fruit (betel nut), cloves and cardamom are also added along with the tambul. Dakshina means money is offered. God is hungry for emotion. So they have nothing to do with matter. Money, gold, silver, anything can be offered in the form of money.

Aarti is performed at the end of the puja with incense, lamp, camphor. Without this worship is considered incomplete. One, three, five, seven i.e. a lamp with odd lights is used in the aarti.

Lord Shiva's Aarti
Jai Shiv Omkara, Bhole Har Shiv Omkara.
Brahma Vishnu always Shiva Ardhangi stream. Har Har Har Mahadev...

Ekanan Chaturanan Panchanan Raje.
Harsanan Garudasana Vrishavahana Har Har Har Mahadev..

Two sides, four quadrilaterals, ten sides, sleep too much.
Tribhuvan Jan Mohe Har Har Har Mahadev..

Akshamala Banmala Mundmala stripe.
Sandalwood Mrigmad Sohai Bhole Shashidhari Har Har Har Mahadev..

Shwetambar Pitamber Baghambar Ange.
Sanakadik Garunadik Bhutadik Sange Har Har Har Mahadev..

Kamandalu Chakra Trishul dharta in the middle of the tax.
Jagkarta Jagbharta does the world Har Har Har Mahadev..

Brahma Vishnu Sadashiv knows he is indecisive.
These three are united in the middle of Pranavakshar. Har Har Har Mahadev..

Vishwanath Virajat Nandi Brahmachari in Kashi.
Nit rise darshan pawat interest interest enjoyment indulgent glory very heavy. Har Har Har Mahadev..

Lakshmi and Savitri, with Parvati.
Parvati Ardhangani, Shivlahari Ganga.. Har Har Har Mahadev....

Parvat Sauhe Parvati, Shankar Kailasa.
The food of hemp dhatoor, the ash in the ashes. Har Har Har Mahadev....

The Ganges is flowing in the Jata, the garland of Gal Mundal.
The remaining snake wrapped, covered with deer. Har Har Har Mahadev....

Whoever sings the aarti of Trigun Shivaji.
Kahat Shivanand Swami should get the desired fruit. Har Har Har Mahadev..

Jai Shiv Omkara Bhole Har Shiv Omkara
Brahma Vishnu Sadashiv Ardhangi stream. Har Har Har Mahadev.

camphor aarti
Karpoorgaurm Karunavataram, Sansarasaram Bhujgendraharam.
Sadavasantam Hrudayarvinde, Bhavam Bhavani Sahitam Namami.

Mangalam Lord Shambhu
Mangalam Rishibadhwaja.
Mangalam Parvati Natho
Good luck everyone.

Mantra Wreath
Mantra Pushpanjali Flowers are offered to the Lord with flowers in his hands by mantras and prayers are offered. The feeling is that like the fragrance of these flowers, our fame spreads far and wide and we can lead a happy life.

Om Yajna Yagyamayanta Devastani Dharmani Pratmanyasan.

Te hum nakam mahimayan: sachant yatra purve sadhya: santi deva:

Rajadhirajaya prasahye sahane namo vaisravanay kurmah s me kamankamakamaye mahyam kameshwaro vaishravno dadatu.
Kuberaya Vaishravanay Maharaja Namah:

Swasti Empire Bhaujyam Swarajya Vairagya
Parmeshtyam Rajya Maharajyamadhipatyam Samantparyayi Sarvayush Antadaparadhatprithvyai Samudraparyanta or Ekraati Tapyesh Shlokolbhigeto Marutah Pariveshtaro Marutsyavasangrihe Avikshitasya Kamprevvedeva: Sabhasad etc.

Om Vishva Dakkshurut Vishwato Mukho Vishwatobahurut Vishwataspat Sambahu Dhyanadhav Dhimbhat Tratyav Bhumi Janayamdev Ekah.
Om Tatpurushaya Vidmahe Mahadevaya Dheemah
Tanno Rudra: Prachodayat

Nana Sugandha Pushpani Yathapado Bhavanich
Pushpanjalirmayadattto Ruhan Parmeshwar
Om Bhurbhuva: Self: Bhagwate Shri Sambasadashivay Namah. Mantra Pushpanjali Samarpayami.

circumambulation
Salutations, Pradakshina means circumambulation. After the aarti, the circumambulation of God is done, the circumambulation should always be done clock-wise. We pray for forgiveness in praise, the meaning of asking for forgiveness is that if we have made some mistake, mistake, then you forgive our crime.
 
That is, Kani Cha Papani Janamantar Kritani Ch. Tani savarni nashyantu pradakshine pade-pade.

Meaning: All the sins committed knowingly or unknowingly and also in the previous births should be destroyed along with the circumambulation.

Thank you 
Regards
Acharya Mordhwaj Sharma 
Shri Kashi Vishwanath Temple Varanasi 
9648023364
9129998000

कामदा एकादशी व्रत 19-04-2024

☀️ *लेख:- कामदा एकादशी, भाग-1 (19.04.2024)* *एकादशी तिथि आरंभ:- 18 अप्रैल 5:31 pm* *एकादशी तिथि समाप्त:- 19 अप्रैल 8:04 pm* *काम...